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हैं। 12 अनन्त इच्छाओं की पूर्ति असम्भव होने से ये अतृप्त इच्छाएं तनाव के स्तर को बढ़ा देती हैं।
व्यक्ति केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ का संचय नहीं करता है। वह अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, वासनाओं, सुख-सुविधा तथा विलासिता के साधनों एवं सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भी अर्थ संचय करता है । 13
वर्त्तमान युग में उपभोवादी जीवन दृष्टि का विकास हो रहा है। आज व्यक्ति अपनी आवश्यक सुविधाओं से अतिरिक्त भी कुछ चाहता है । उसकी अर्थ के प्रति आसक्ति इतनी बढ़ गई है कि मनुष्य अपने से ज्यादा अर्थ को प्रधानता देता है। वह धन का उपार्जन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की पूर्ति के लिए करता ही रहता है और जीवन में कभी शांति को प्राप्त नहीं कर पाता है । आज व्यक्ति में स्वार्थ इतना बढ़ चुका है कि वह न स्वयं शांति से जीता है न दूसरों को शांति से जीने देता है ।
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अर्थ तनाव का हेतु है, क्योंकि अर्थ अर्जन का एक हेतु व्यक्ति की तृष्णा या इच्छा भी है । आचारांग में लिखा है - व्यक्ति तृष्णारूपी चलनी को जल से भरना चाहता है। तृष्णा की पूर्ति के लिए व्याकुल ( तनावग्रस्त ) मनुष्य दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए, दूसरों को परिग्रहित करता है तथा जनपद के वध, व परिग्रहण के लिए प्रवृत्ति करता है। 14 मधुकर मुनि इसी सूत्र का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि -आगम में सुखाभिलाषी पुरुष को अनेकचित्त बताया है, क्योंकि वह लोभ से प्रेरित होकर कृषि, व्यापार, कारखाने आदि अनेक धंधे करता है, उसका चित्त रात-दिन, उन्हीं अनेक धंधों की उधेड़बुन में लगा रहता है। 15 अर्थ को तनाव का हेतु बताते हुए वे आगे लिखते हैं कि अनेकचित्त (अनेक इच्छाओं से युक्त ) पुरुष अतिलोभी बनकर कितनी
12 आचारांग
13 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 18
14 आचारांग - अध्ययन - 3 / 2 /118
'' आचारांग - अध्ययन-3 / 2 / सूत्र 118 का विवेचन, पृ. 93, मधुकर मुनि
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