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________________ वस्तुतः वे व्यक्ति जो धन को त्राणदाता समझकर उसके अर्जन में । पापकर्मों को करते हैं, वही धन उनकी की मानसिकता पर एक दबाव बनाए रखता है। उदाहरण के लिए -यह धन कहीं चोरी न चला जाए -इसकी चिंता, इतने धन को किस प्रकार भोग करूं, कहीं मेरे मरने पर यह धन कोई दूसरा तो न ले जाए, धन के लालच में कोई व्यक्ति मुझे कोई नुकसान न पहुँचाए या मृत्यु न दे दे, आदि का भय उसे तनावग्रस्त बनाए रखता है और धन के मोह में आसक्त चाहकर भी तनावमुक्त नहीं हो पाता है। वह भयमुक्त या तनावमुक्त होने के लिए भी उसी धन का ही सहारा लेता है जो उसे तनावग्रस्त बनाता है। जैन ग्रंथों में एक कथा है –'इन्द्रमह उत्सव का आयोजन था। राजा ने अपने नगर में घोषणा करवाई कि आज नगर के सभी पुरुष गांव के बाहर उद्यान में एकत्रित हो जाएं। कोई भी पुरुष नगर के भीतर न रहे। यदि कोई रहेगा तो उसे मौत का दंड भोगना पड़ेगा। सभी पुरुष नगर के बाहर एकत्रित हो गए। राजपुरोहित का पुत्र एक वेश्या के घर में जा छुपा। राज्य कर्मचारियों को पता लगा और वे वेश्या के घर से उसे पकड़ कर ले गए। वह राजपुरुषों के साथ विवाद करने लगा। वे उसे राजा के समक्ष ले गए। राजाज्ञा की अवहेलना के जुर्म में राजा ने उसे मृत्युदंड दिया। पुरोहित राजा के समक्ष उपस्थित होकर बोला राजन्! मैं अपनी समस्त सम्पत्ति आपको दे देता हूँ। आप मेरे इकलौते पुत्र को मुक्त कर दें। राजा ने उसकी बात स्वीकार नहीं की और पुरोहितपुत्र को शूली पर चढ़ा दिया। आशय यह है कि धन त्राणदाता न बन सका। आज सम्पत्ति या धन हीं अशांति एवं तनाव का प्रमुख कारण है। धन अपने साथ व्यक्ति में कई पाप कर्मों को लेकर आता है और उसे इतना तनावग्रस्त बना देता है कि जहाँ से मुक्ति-पथ अर्थात् तनाव-मुक्ति के मार्ग पर 'बृहवृत्ति, पत्र-211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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