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________________ न परलोक में धन के माध्यम से त्राण (संरक्षण) नहीं पाता है। पहले धनार्जन की चिन्ता में तनावग्रस्त रहता है, फिर उस उपलब्ध धन के संरक्षण हेतु तनावों में जीता है। पुरूषार्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है, किन्तु वह पुरूषार्थ भी सही कार्य के लिए होना चाहिए। कुछ मतवादी अर्थपुरूषार्थ पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि धन ही जीवन को सुरक्षित रख सकता है। आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रमुख पुरुष कहते हैं –'हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है, सबको धनी बनना है। इस रास्ते में नैतिक और अनैतिक का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं है। वे नैतिकता के विचार को भी धन कमाने के मार्ग में बाधक तत्त्व मानते हैं। आज विश्व में भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्तियों का राज है। यही भ्रष्टाचार पूरे विश्व में अशांति फैला रहा है। यदि अर्थशास्त्रियों की विचारधारा यही है कि धन के उपार्जन में नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है तो फिर विश्व का प्रत्येक प्राणी एवं स्वयं प्रकृति भी तनावग्रस्त ही रहेगी। सभी को सदैव भय बना रहेगा कि कब, कौन, किसकी हिंसा कर दे और यह भय की वृत्ति तनावग्रस्तता की सूचक है। आज बढ़ते हुए आर्थिक अपराधों, अप्रामाणिकता और बेईमानी ने पूरे विश्व को अशांत व तनावग्रस्त बना दिया है। प्रत्येक व्यक्ति इन सबसे बचने के लिए धन को ही अपना संरक्षक मानते हैं, परन्तु भगवान् महावीर के अनुसार धन किसी का त्राणदाता नहीं बन सकता है। उनका मानना है कि -वासना की अंधेरी गुफा में जिसका विवेकरूपी दीपक बुझ गया हो, उसको शान्ति कहाँ मिलेगी। वह मनुष्य तनावमुक्त होने के मार्ग को देखकर भी नहीं देख पाता है। आचार्य तुलसी ने उत्तराध्ययन की पूर्वोक्त गाथा का विवेचन करते हुए लिखा है कि –'व्यक्ति धन कमाता है, पर वह (धन) उसके लिए त्राणदायक नहीं बनता। धन सुख-सुविधा दे सकता है, पर शरण नहीं।' " उत्तराध्ययनसूत्र - अध्याय 4/5 ' उत्तरज्झयणाणि, आचार्य तुलसी, अध्याय-4 की गाथा-5 का अर्थ विवेचन, पृ. 114 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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