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अपनी पूर्णता में निर्ममत्व की साधना बन जाता है तो दोनों ही तनाव को समाप्त करने में सहायक होते हैं । सर्व व्यापी राग व सर्व व्यापी द्वेष तनाव का कारण नहीं है। नियमसार में भी उल्लेखित है कि जिसे राग-द्वेष उत्पन्न न होता है, उसे विकार भी उत्पन्न नहीं होता है। 2 रागद्वेष के अभाव में समता होती है और जहाँ समता है, वहाँ तनाव नहीं होता है। तनाव का मूल कारण राग व द्वेष की सहजीविता है। राग व द्वेष की सहजीविता से ही व्यक्ति में कषाय की वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। कषाय व राग-द्वेष का सम्बन्ध बताते हुऐ समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते है कि - मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग आस्रव के निमित्त है और कर्म - आश्रव से बंध होता है। बंध के उदय के निमित्त पुनः राग-द्वेष हैं और इस प्रकार संसार चक्र चलता रहता है वस्तुतः जहाँ आश्रव है, वहाँ बंध है और जहाँ बंध विपाक है वहाँ तनाव है । क्योंकि आश्रय संसार परिभ्रमण का कारण है और संसारचक्र में तनावमुक्ति संभव नहीं है। तनाव के निमित्त कषाय है, कषाय के निमित्त राग- - द्वेष है, अर्थात राग-द्वेष से मुक्ति कषायमुक्ति है और कषायमुक्ति ही तनावमुक्ति है, यही मोक्ष है ।
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उ. यशोविजयजी कहते है - "यदि ममता जाग्रत हो, अन्दर विषयों के प्रति राग विद्यमान हो, तो विषयों का त्याग करने से भी क्या होगा ? मात्र केंचुली का त्याग करने से सर्प विषरहित नहीं होता है। 94 कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति में राग या ममता का जहर फैला हुआ है। राग निर्मल हो जाए तो विषय-भोग का त्याग सहज हो जाता है और व्यक्ति तनावमुक्ति का अनुभव करता है । तनावमुक्ति के लिए राग-द्वेष को छोड़ना ही होगा। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती उसी प्रकार जहाँ ममत्व है वहाँ समत्व नहीं रह सकता अर्थात जहाँ राग है वहाँ मुक्ति सम्भव नहीं है। ज्ञानार्णव में कहा गया है - जिस पक्षी के पंख कट गए हैं, वह जिस प्रकार उपद्रव करने में
2 नियमसार
१३ समयसार / आश्रव अधिकार
94 ममत्वत्यागाधिकार
परमसमाध्याधिकार - 128
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164, 165
अध्यात्मसार
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उ. यशोविजयजी
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