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________________ जब परावलम्बन और स्वावलम्बन का भेद समझ में आता है, तो व्यक्ति स्वावलम्बी बनने के लिए उद्यत होता है । स्वावलम्बी बनने की भावना उसे पराधीन या परतन्त्र नहीं होने देती । पराधीन व्यक्ति जब पराधीनता को अपने दुःख का कारण जानकर जैसे-जैसे उस पराधीनता या परावलम्बन से मुक्त होता है, उसकी अन्तःशुद्धि होती जाती हैं। जैसे - चिड़िया सोने के पिंजरे में बंद हो, फिर भी खुश नहीं रहती, वह भी आजाद हो कर स्वावलम्बी बनना चाहती है। वैसी ही आत्मा भी मुक्त होना चाहती है। कभी-कभी वह तनावमुक्ति के लिए, स्वतन्त्र होने के लिए और स्वावलम्बी बनने के लिए प्रयास तो करता है किन्तु फिर भी वह उसे जीवन में उतारने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसका कारण उसकी मानसिक कमजोरी ही है, क्योंकि एक बार जीवन किसी के आश्रित हो जाए अर्थात परवालम्बी बन जाए तो उससे छूटना अत्यधिक कठिन होता है। पं. फूलचन्दजी शास्त्री ने इसका कारण जीवन की भीतरी कमजोरी माना है और कषाय चतुष्क को इस दशा के बनाये रखने में निमित्त बताया है। तनावमुक्ति के लिए व्यक्ति का स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी होना आवश्यक है और इसके लिए उसे मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ अन्तःशुद्धि भी करनी होगी । अंतःशुद्धि में बाधक तत्त्व कषाय चतुष्क का उदय होने पर उनका समभाव से सामना कर कर्मों की निर्जरा करनी होगी, तभी मोक्ष प्राप्ति सम्भव है। कषायमुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है, तनाव से भी और संसार से भी । तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में भी कषाय को ही संसार भ्रमण का मुख्य कारण बताया है और व्यक्ति के दुःखों एवं तनावों की उत्पत्ति का हेतु भी कहा है। साथ ही मुक्ति के लिए कषाय - ‍ - मुक्ति को ही एकमात्र मार्ग बताया है । 85 “जैनदर्शन के अनुसार स्वावलम्बनपूर्ण आचरण को ही सदाचार कहा गया है । इसी सदाचार का दूसरा नाम सच्चारित्र भी है। जो कार्य इस सच्चारित्र में बाधक होते हैं उन्हें ही आगम में चारित्र - मोहनीय कहा गया है।"86 स्वावलम्बन; 85 सर्वार्थसिद्धी पृ. 302 86 सर्वार्थसिद्धि :- अध्याय 8 पृ. 302 Jain Education International 39 - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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