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________________ ___38 उपरोक्त सभी नो कषायों एवं कषायों के भेदों को मिलाकर कुल पच्चीस . भेद होते है। ये पच्चीस कषाय जब उदय में आते है तब इनकी तीव्रता या मन्दता के कारण व्यक्ति की विवेक क्षमता में परिवर्तन होता है और ये मानसिक तथा दैहिक स्तर पर तनावों को जन्म देते हैं। इसकी विस्तृत चर्चा चतुर्थ अध्याय में की गई है। ___प्रत्येक व्यक्ति तनाव से मुक्त रहना चाहता है। तनाव से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति की चेतना दैहिक एवं मानसिक बाध्यता की स्थिति में भी विवेक एवं समभाव से परिपूर्ण हो, साथ ही क्षमा, सहनशीलता, दया आदि गुणों से युक्त हो। इन गुणों के अभाव में व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है। कषायें इन्हीं गुणों की नाशक हैं, अर्थात् उन्हें नष्ट करने वाली हैं। साथ ही इन गुणों के विकास में बाधक तत्व भी हैं। यदि व्यक्ति स्वयं यह समझ ले कि तनावमुक्ति के लिए उसे अपने विवेकादि गुणों को प्राप्त करना है, तो क्रोधादि कषाय के उदय होने पर भी तत्सम्बन्धी प्रतिक्रियायें रोककर, वह अन्तःशुद्धि को प्राप्त कर सकता है अन्तःशुद्धि ही आत्मशुद्धि है और यह आत्मशुद्धि तनावमुक्ति की अवस्था है, क्योंकि इसमें आत्मा, कषाय या नोकषायजन्य तनावों से अप्रभावित या मुक्त रहता है। पं. फूलचन्द शास्त्री का मानना है कि व्यक्ति के जीवन में स्वातन्त्र्य एवं स्वावलम्बन अनिवार्य रूप से होना चाहिए। "स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बन का अविनाभाव सम्बन्ध है। जीवन में स्वातन्त्र्य प्राप्ति के पुरूषार्थ में स्वावलम्बन का महत्व अपने आप समझ में आ जाता है।" व्यक्ति के दुःख का कारण ही यह है कि वह सदैव दूसरों पर आश्रित रहता है। दूसरे के सहारे ही जीवन जीता है और जब 'पर' का आश्रय छूट जाता है, तो व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। अगर व्यक्ति स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होगा तो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझेगा। स्वावलम्बी होने से पूर्व भी उसे आत्मस्वातन्त्र्य का बोध होना चाहिए 84 सर्वार्थसिद्धी - अध्याय – 8 पृष्ट 302 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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