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________________ 32 दुहओ जीवियस्य परिवंदन-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमायंति ।।120 ।। अर्थात् -रागद्वेष से संतप्त कई-एक जीव अपने जीवन के मान सम्मान के लिए, पूजा-प्रतिष्ठा के लिए प्रमाद-हिंसा आदि पापों का आसेवन करते हैं।' प्रमादी व्यक्ति सदा तनावग्रस्त रहता है। अभिमान में व्यक्ति में और अधिक पाने कि लालसा बढ़ जाती है। आचारांग में कषायवृतियों की उत्पत्ति का मूल कारण राग ही कहा है। "खेत, मकान आदि में आसक्त मनुष्य को असंयति जीवन ही प्रिय लगता है और रंगे हुए एवं भिन्न-भिन्न रंग युक्त वस्त्रों, चन्द्रकान्ता आदि मणियों, कुण्डल एवं स्वर्ण आदि के साथ स्त्रियों को प्राप्त करके उनमें आसक्त अत्यन्त अज्ञानी जीव, असंयम जीवन के इच्छुक होते हैं। विषय-भोगों के लिए अत्यन्त रागभाव रखता हुआ शारीरिक, मानसिक दुःखों एवं अपयश को प्राप्त करता हुआ तनावयुक्त जीवन जीता है। 62 जब व्यक्ति की दृष्टि भौतिकता की ओर होती है, तब इच्छा तनावजन्य से मुक्त होने के लिए भी वह बाह्य पदार्थो को ही खोजता है। इस प्रकार व्यक्ति अनुकूल पर राग और प्रतिकूल पर द्वेष करता हुआ तनावयुक्त चित्तवृत्तियों का पोषण करता रहता है। मान का पोषण एवं लोभ की पूर्ति में बाधक तत्वों को जानकर उनके प्रति क्रोध एवं मायाचार करता है। इस प्रकार राग-द्वेष तनावों की उत्पत्ति के बीज हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि काषायिक चित्तवृत्तियाँ व्यक्ति को तनावयुक्त बना देती हैं। तनावमुक्ति का उपाय बताते हुए आचारांग में कहा गया है कि -बुद्धिमान पुरूष को राग-द्वेष को आत्मा से पृथक करके विषयों को कषाय उत्पत्ति का हेतु जान करके उन्हें छोड़ दे और संयम में पुरूषार्थ करे, जिससे वह तनावमुक्त हो सकता है। आगे वर्णित है कि जो ज्ञान से युक्त संयमनिष्ठ व्यक्ति हैं, वे कषाय–अर्थात क्रोध, मान, माया और लोभ की वृतियों का वमन या त्याग कर देते हैं और स्वतः ही तनावमुक्त हो जाते हैं। 6' आचारांग - 3/3/120 62 से अबुज्झमाणे हओवहए. ............ समुवेई -वही 2/3/80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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