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________________ सक्रिय स्थिति को जैनदर्शन में चेतना कहा गया है। इस चेतना की भी तीन अवस्थाएँ हैं - 1. ज्ञानचेतना, 2. कर्मचेतना या कर्मफल चेतना । 352 शरीर का इन्द्रियों के माध्यम से जब आत्मा का बाह्यजगत से सम्पर्क होता है तो उसके परिणाम स्वरूप, उसमें विविध प्रकार की संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। उन संवेदनाओं के प्रति आत्मा की सजगता ही ज्ञान चेतना है। ज्ञान चेतना के माध्यम से व्यक्ति उन संवेदनाओं को जानता मात्र है, उनसे प्रभावित नहीं होता है। दूसरे जब इन्द्रियाँ बाह्यजगत के सम्पर्क में आती हैं तब जो अनुभूति या संवेदनाएँ होती हैं, यदि उससे उन्हें प्राप्त करने या दूर करने की इच्छा का जन्म होता है, तब यह इच्छा या संकल्प ही कर्म चेतना बन जाती है। कर्म चेतना ही आत्मा में तनाव उत्पन्न करती है । जहाँ तक कर्म फल चेतना का सम्बन्ध है, यदि उस स्थिति में साधक संकल्प - विकल्प नहीं करता है मात्र उनमें ज्ञाता - द्रष्टा रहता है तो यह चेतना कर्मफल चेतना बनकर तनाव उत्पन्न नहीं करती है, क्योंकि इसमें व्यक्ति मात्र ज्ञाता - द्रष्टा होता है । वस्तुतः उत्तराध्ययनसूत्र में मन की विषयों के प्रति भोगाकांक्षा को ही दुःख (तनाव) का हेतु कहा गया है। हेमचन्द्राचार्य ने मन की चार अवस्थाएँ बताई हैं। इन चार अवस्थाओं में प्रथम विक्षिप्त मन सदैव विषयों के प्रति आसक्त होने से व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाए रखता है। दूसरा यातायात मन कभी ज्ञान चेतना या कर्मफल चेतना से युक्त हो तनावमुक्ति का अनुभव करता है, तो कभी इन्द्रिय विषयों में आसक्त होकर संकल्प - विकल्प करते हुए पुनः तनावग्रस्त हो जाता है। तीसरा श्लिष्ट मन तनाव मुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और अन्त में पूर्णतः शांति या तनावमुक्ति की अवस्था को प्राप्त कर वही चौथा सुलीन मन बन जाता है। जैनदर्शन के अनुसार व्यक्ति के मनोभाव ही उसके व्यक्तित्व को उजागर करते हैं। इन मनोभावों के आधार पर जैनदर्शन में षट्लेश्याओं का सिद्धान्त है । उत्तराध्ययनसूत्र के चौंतीसवें अध्याय में इन षट् लेश्याओं के स्वरूप की चर्चा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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