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करना होगा, तभी हमारे तनावों से मुक्ति पाने के प्रयास सफलता को प्राप्त कर
सकेंगे।
जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि तनाव का सम्बंध देह एवं व्यक्ति की मानसिकता से है। जब व्यक्ति आत्म चिंतन करना प्रारम्भ कर देता है और देहातीत अवस्था को प्राप्त होता है तब देह एवं मन से ऊपर उठ जाता है। वह अध्यात्म पथ का पथिक बनने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार शांति प्राप्त करने का सही या सम्यक् मार्ग पा लेता है। दूसरे शब्दो में कहे तो जहाँ तनावों का अंत होता है वहीं अध्यात्म का प्रारम्भ होता है । अध्यात्म में व्यक्ति देह एवं मन से परे होकर ज्ञाता - द्रष्टा या साक्षी भाव में जीता है। जब वह आत्मा को महत्त्व देता है तब उसके सारे प्रयत्न भौतिक सुख साधनो को प्राप्त करने के लिए नहीं होते अपितु आत्म शांति को प्राप्त करने के लिए होते है । व्यक्ति शरीर में होने वाले हर सुख - दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है। वह दैहिक सुख में न तो प्रसन्न होता है और न ही दैहिक दुःख में दुःखी होता है।
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आचारांगसूत्र में अध्यात्म पद का अर्थ प्रिय और अप्रिय अनुभूतियो का समभावपूर्वक संवेदन किया गया है। 13 देह व मन में होने वाली वृत्ति तनाव है । इसी के विपरीत आत्मा में होने वाली समत्व की अनुभूति तनाव - मुक्ति है। आचांरागभाष्य में अध्यात्म को परिभाषित करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं। - अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृति अध्यात्म है। 14 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्यात्म में व्यक्ति में दूसरे प्राणियो के प्रति आत्मवत् वृत्ति जाग्रत हो जाती है। उसे जैसे स्वयं के प्रिय और अप्रिय के अनुभव में सुख - दुःख की अनुभूति नहीं होती है मात्र साक्षीभाव की अनुभूति होती है । व्यक्ति की तनावमुक्ति तभी सम्भव है, जब वह अध्यात्म दृष्टि से सम्पन्न हो । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अध्यात्म पद पर चलने का साधन देह ही तो है फिर क्या देह को सुरक्षित रखने का प्रयास छोड़ दे ? इसका उत्तर हमें विनोबा भावे की पुस्तक आत्मज्ञान और
43 आचारांगसूत्र - 7 / 47
44 आचारांगभाष्य आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 75
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