SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भयभीत नहीं करना चाहिए । यदि कोई राष्ट्र दूसरे को भयभीत करके जीना चाहेगा, तो वह भी भय से मुक्त नहीं रह सकता है। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - "यदि तुम अभय चाहते हो, अर्थात् निर्भय होना चाहते हो तो दूसरों को भी अभय प्रदान करो, उन्हें भी निर्भय बनाओ। व्यक्ति समाज या राष्ट्र कोई भी हो, दूसरों को भयभीत करके स्यं को भय रहित नहीं बना सकता है। भय मिटेगा तो पारस्परिक विश्वास एवं परोपकार की वृत्ति से, न कि संहारक अस्त्रों से दूसरों को भयभीत करके । 344 इस प्रकार जैनदर्शन में जहाँ एक ओर तनावों के कारणों का प्रस्तुतिकरण एवं उनकी समीक्षा की गई है, वहीं दूसरी ओर उसने तनावमुक्त होने के सूत्र भी प्रस्तुत किए हैं। इस प्रकार जैन धर्मदर्शन तनावों के सम्यक् प्रबंधन की बात करते हुए व्यक्ति के सामने तनावमुक्त होने का आदर्श भी प्रस्तुत करता है । वह एक ओर तनावों के कारणों को बताता है तो दूसरी ओर तनावों के निराकरण के सूत्र भी प्रदान करता है । इसलिए प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में हमने एक ओर तनावों के स्वरूप को समझाया है, तो साथ ही उसके कारणों का विश्लेषण भी किया है। और अंत में यह बताने का प्रयास किया है कि तनावों के कारणों को समाप्त करके ही, तनाव को समाप्त किया जा सकता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति अर्थात् तनाव मुक्ति के लिए हमने प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ को छह अध्यायों में विभक्त कर जैन दृष्टिकोण से तनाव प्रबंधन का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। शोध-प्रबंध के प्रथम अध्याय में वर्तमान वैश्विक समस्याओं में एक प्रमुख समस्या तनाव के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। तनाव मानव समाज की समस्या होने के कारण ही विश्व की एक मुख्य समस्या बन गई है। वर्तमान युग को वैज्ञानिक युग कहा जाता है, क्योंकि विज्ञान ने व्यक्ति की इन समस्याओं का समाधान करने के हेतु एवं उसे अपने दुःखों से मुक्ति देने के लिए सुख-सुविधा के सारे साधन प्रदान किए हैं। इतना ही नहीं, मानव समाज को भयमुक्त करने Jain Education International For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy