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________________ 343 उत्पन्न होती है, अतः आज वैश्विक समस्याओं में तनाव ही प्रमुख समस्या है और इस तनाव के कारण ही जीवन दुःखमय है। मानवीय चेतना में वासना और विवेक का संघर्ष चलता है, जिसे मनोवैज्ञानिक इड (id) या वासनात्मक चेतना और सुपर इगो अर्थात् आदर्शों की चेतना का संघर्ष कहते हैं. यही हितों का संघर्ष बनकर विभिन्न समाजों और राष्ट्रों के बीच भी व्याप्त हो जाता है। आज विश्व का प्रत्येक देश और उसके नागरिक तनावग्रस्त हैं, क्योंकि एक ओर उनकी आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ अपूर्ण बनी हुई हैं, तो दूसरी ओर वे दूसरों की सम्पन्नता देखकर ईर्ष्या के कारण और उनकी सैन्य शक्ति को देखकर भय के कारण तनावग्रस्त होते हैं। ईर्ष्या एवं भय भी तनावग्रस्तता के ही रूप हैं। आज विश्व के सभी राष्ट्र एक दूसरे से भयभीत हैं और इसके परिणाम स्वरूप आज वैश्विक राजस्व का पचास प्रतिशत से अधिक व्यय सेना और सैन्य संसाधनों पर हो रहा है। चाहे तृष्णा हो, ईर्ष्या का भाव हो या भय हो, सभी व्यक्ति और समाज दोनों में तनाव उत्पन्न करते हैं। आज जब तक मानव समाज तनावमुक्त नहीं होता, हम विश्वशांति का स्वप्न साकार नहीं कर सकते हैं आज इसी भय और ईर्ष्या की प्रवृत्ति को लेकर संहारक अस्त्र शस्त्रों की अंधी दौड़ चल रही है। संसार में जो भी संघर्ष हैं, वे सब इसी तनावग्रस्तता के कारण हैं। आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने बहुत पहले कहा था कि जो आतुर है, अर्थात् जिनकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ अपूर्ण हैं, वे तनावग्रस्त हैं और वे ही दूसरों को दुःख या पीड़ा देकर तनावग्रस्त बनाते हैं। दूसरी ओर संहारक अस्त्रों की इसी अंधी दौड के कारण आज सभी राष्ट्रों में पारस्परिक भय और अविश्वास बना हुआ है। इसलिए ही भगवान् महावीर ने कहा कि शस्त्र तो एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो शस्त्रों की इस अंधी दौड़ का कोई अंत नहीं है। आज एक से बढ़कर एक भयंकर अस्त्र निर्मित हो रहे हैं, और विश्व बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है। व्यक्ति को अंततोगत्वा अहिंसा व शांति को ही अपनाना होगा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि यदि हम भयमुक्त होना चाहते हैं, तो हमें भी दूसरों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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