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________________ 287 शुद्ध स्वभाव ही आत्मा की तनावमुक्त अवस्था है। कषायें, वासनाएँ चित्त में विकलता एवं चंचलता उत्पन्न कर देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप आत्मा अशुद्ध या विभाव दशा में चली जाती है। यही विभाव दशा आत्मा की तनावयुक्त दशा है। इस तनावयुक्त दशा से तनावमुक्त अवस्था में आने की प्रक्रिया ही सम्यग्चारित्र है। सम्यग्चारित्र तनाव प्रबंधन का साधन है। स्वभावतः नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से उपर चढ़ने लगता है, इसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी बाह्यमलों, कषाय आदि के दबाव से अशुद्ध बन जाती है। वस्तुतः तनाव बाह्य निमित्तों से आत्मा के जुड़ाव के कारण होता है। बाह्य विषयों के प्रति आसक्ति समाप्त होने पर आत्मा तनावमुक्त हो जाती है। वह अपने स्वाभाविक रूप को प्राप्त करता है। सम्यक्चारित्र का कार्य बाह्य पदार्थों के प्रति आत्मा की आसक्ति को समाप्त कर उसे स्वाभाविक दशा अर्थात् वीतरागदशा में ले जाना है। चारित्र के प्रकार - तनाव उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से विमुख होकर तनावमुक्ति की दिशा में किया जाने वाला प्रयत्न चारित्र है। उस प्रयत्न से आत्मा के परिणामों में वासनाजन्य विकल्प शांत होते हैं एवं उसमें विशुद्धि आती है। विशुद्धि या तनावमुक्त की इस प्रक्रिया (चारित्र) के पांच प्रकार माने गए हैं - 1. सामायिक चारित्र, 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र, 3. परिहारविशुद्धि चारित्र, 4. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, और 5. यथाख्यात चारित्र। सामायिक चारित्र - सामायिक का अर्थ है समभाव की प्राप्ति एवं विषय भावों का निवारण। अशान्ति का मूल कारण चित्तवृत्ति की विषमता है और इसी का परिणाम है कलह अर्थात् तनाव। जब तक मन में राग-द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार आदि विषमभावों की भयंकर ज्वालाएँ जलती रहेगी, तनावमुक्ति सम्भव नहीं होगी तनावमुक्ति संभव नहीं होगी। तनावमुक्ति हेतु सामायिक समभाव की साधना आवश्यक है। चारित्र की अनुपासना समभाव की साधना का एक प्रयत्न है। सामायिक चारित्र का साधक यह प्रयत्न करता है कि वह अनुकूल और प्रतिकूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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