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________________ . 286 तनावों के निराकरण का प्रयत्न करना ही सम्यकचारित्र है। वस्तुतः तनावमुक्त शुद्ध आत्मा, जिसका हमें साक्षात्कार करना है, वह हमारे भीतर ही है। जिस प्रकार बीज में यह सामर्थ्य होती है कि वह उसके ऊपर के आवरणको तोड़कर स्वयं को वृक्ष के रूप में विकसित कर सकता है, उसी प्रकार आत्मा में यह शक्ति है कि वह वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की वृत्तियों से उत्पन्न तनावों के निराकरण कर तनावमुक्त आत्मदशा का साक्षात्कार कर सकता है। सम्यक्चारित्र तनावों के कारणों अर्थात् वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की वृत्तियों के निराकरण करने में है। वह स्व सृजित आवरणों को तोड़ने का प्रयास सम्यक् चारित्र का स्वरूप - सम्यकचारित्र का अर्थ है चित्त या आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना।” जिस प्रकार पानी में हवा से धूल-मिट्टी मिल करके पानी को गंदा कर देती है, उसी प्रकार हमारी आत्मा में कषाय रूपी कचरा मिलकर उसे अशुद्ध कर देता है। आत्मा की शुद्धि की जो प्रक्रिया है, वही सम्यकचारित्र है। चित्त अथवा आत्मा की वासनाजन्य मलिनता और अस्थिरता ही तनावों को उत्पन्न करती है। तनाव आत्मा की वैभाविक दशा है। निश्चयनय की दृष्टि से तो आत्मा स्वाभाविक रूप से शुद्ध है। समयसार में कहा गया है कि -"तत्त्व दृष्टि से आत्मा शुद्ध है।" 28 भगवान् बुद्ध भी कहते हैं -"भिक्षुओं, यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध है।" 29 गीता में भी आत्मा को अविकारी कहा है। फिर भी विषयवासना या कषाय रूपी कचरा भी इसी में है। उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध ही है, किन्तु बाह्य तत्त्वों के कारण आत्मा विभावदशा के प्राप्त करती है। आत्मा का " जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, – पृ. 84 28 समयसार – 151 9 अंगुत्तर निकाय - 1/5/9 30 गीता - 2/25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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