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________________ 283 जिसके आधार पर हम अपने ज्ञान को भी सही दिशा में नियोजित कर उसे यथार्थ बना सकते हैं। सम्यकज्ञान और तनाव प्रबंधन - सम्यक्ज्ञान ही तनाव प्रबन्धन का आधार है। सम्यक्ज्ञान से ही तनावमुक्ति संभव है। तनावमुक्ति ही आनन्द की अवस्था है। अज्ञान दशा में विवेकशक्ति का अभाव होता है और विवेकहीन व्यक्ति को उचित और अनुचित का अन्तर ज्ञात नहीं होता। प्रबन्धन की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान का निराकरण कर सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करे। क्योंकि सम्यग्ज्ञान तथा आत्म-अनात्म या स्व-पर के विवेक द्वारा 'पर' के प्रति ममत्व के आरोपण से बचता है, क्योंकि 'पर' पदार्थों पर ममत्व का आरोपण ही व्यक्ति के तनावों का मुख्य कारण होता है। जो अपना नहीं है उसे अपना मानकर उसके निमित्त से व्यक्ति तनावों से ग्रस्त होता है, जो व्यक्ति को तत्त्वों के ज्ञान के माध्यम से स्व-परस्वरूप का भान कराता है, हेय और उपादेय का ज्ञान कराता है, वही सम्यग्ज्ञान है। सम्यक-ज्ञान की साधना ही व्यक्ति के चित्त का निरोध करती है और चित्त का निरोध कर तनावमुक्ति की दशा में ले जाने का प्रयत्न करती है। मूलाचार में भी कहा गया है -"जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में सम्यग्ज्ञान कहा गया है। 20 जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्री भाव प्रभावित होता है, उसको ही जिनशासन में सम्यग्ज्ञान कहा गया है। 21 ऐसा ज्ञान ही तनावमुक्ति का साधन है। आचार्य यशोविजयजी ज्ञानसार में लिखते हैं कि -"मोक्ष अर्थात् तनावमुक्ति के हेतुभूत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि तनावमुक्ति में अनुपयोगी विस्तृत ज्ञान भी 1 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन – पृ. 62 20 मूलाचार - 5/85 । मूलाचार - 5/86 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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