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________________ स्वयं को तनावमुक्त बनाने के लिए कषायों को अपनाता है, जो उसे और अधिकं तनावयुक्त बना देती हैं। आचारांग में भी कहा गया है कि जन्म-मरण और मुक्ति के लिए या दुःखों से छुटकारा पाने के लिए जीव पाप क्रियाओं में प्रवृत होते है | .99 तनावमुक्ति के लिए तनावों के कारणों को अपनाते हैं । किन्तु तनावमुक्त व्यक्ति न सुखी होता है न दुःखी । वह तो समभाव में रह कर आनंद व शांति का अनुभव करता है, क्योंकि वह विभावदशा का परित्याग कर देता है। स्व स्वभाव में रही आत्मा राग-द्वेष से रहित, अपने वश में की हुई इन्द्रियों और मन के द्वारा कार्य करता है, या भोगता है तो भी वह स्वयं को तनावमुक्त ही अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में उसकी आत्मा निर्मल होती है और उसमें सम्पूर्ण दुःखों का अभाव होता है। आनंद का अनुभव होता है अर्थात् वह पूर्णतः तनावमुक्त और शांत होता हैं। अंत में हम यही कहेगे कि आत्मा - परिशोधन के लिए विभावदशा या तनावयुक्त दशा का परित्याग करने के लिए सुख-दुख की खोज पदार्थों में न कर अपनी आत्मा में करना ही अर्थात् स्व स्वभाव में आना ही जैनदर्शन में तनावमुक्ति का उपाय है । सुख-दुःख, रोग, क्षुधा आदि के उपद्रवों में भी मन को विकल्पों से ऊपर उठाना, अपनी आत्मा का चिंतन करना तनावमुक्ति का उपाय है। उत्तराध्ययनसूत्र में जब केशी ने गौतम से पूछा कि शत्रुओं को आपने कैसे जीता ? तब गौतम ने कहा - 239 "एगे जिया जिया पंच, पच जिए जिया दस दसहा उ जिवित्ताणं, सव्वसत्तु जिणामहं | 100 अर्थात् मैंने सर्वप्रथम एक मन को जीता और इससे चार कषायों पर विजय पा ली। इन पांच को जीतने से पांच इन्द्रियां भी विजित हो गई। इस प्रक्रिया से सारे शत्रुओं पर विजय पा ली, अर्थात् अपने आप पर विजय पा ली।" ” आचारांगसूत्र - आत्मारामजी म.सा. - 1/1/11 100 उत्तराध्ययसूत्र 23/26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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