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________________ "विकल्प जाल जम्बालान्निर्गतोडयं सदा सुखी आत्मा तत्र स्थितो दुःखीत्यनुभूय प्रतीयताम् ।।1।1929 अर्थात् विकल्पों के समूह रूपी दलदल में से बाहर निकला हुआ, यह आत्मा सदा सुखी है, और उन विकल्पों के जाल में रही हुई आत्मा सदा दुःखी है, इस बात का अनुभव या प्रतीति करो।" विकल्प करना मन का कार्य है, क्योकि मन विकल्पों के आधार पर ही खडा हुआ है। आत्मा अपने ज्ञाता-द्रष्टाभाव से उसे मात्र देखे और जाने, किसी भी प्रकार की इच्छा या विकल्प न करे और स्व-स्वभाव या ज्ञातादृष्टा भाव में ही रहे तो वह तनावमुक्त अवस्था में ही रहेगा। मन की चंचलता, मन की विकल्पता, इच्छाओं और आकांक्षाओं को बढ़ाती है। ये वस्तुओं पर राग-द्वेष के भाव जाग्रत करती है। ये राग-द्वेष के भाव भोगाकांक्षा या वासना को प्रदीप्त करती है और जब कोई वासना पूर्ण नहीं होती तब क्रोध आदि कषाय व्यक्ति के मन में अपना घर बना लेते हैं, व्यक्ति अवसाद और क्षोभ में डूब कर तनावग्रस्त हो जाता है। कषाय रूपी रोग शरीर और मन को और अधिक अपने जाल में फंसा लेता है और आत्मा अपना ज्ञाता-द्रष्टा भाव भूलकर कर्ता-भोक्ता में रमण करने लग जाता है, अर्थात् अपना स्वभाव भूल कर विभावदशा में चली जाती है। किन्तु अगर आत्मा अपने स्व-स्वरूप में लौट आए अर्थात् उसे यह भान हो जाए कि मैं शुद्ध आत्मा हूँ एवं उसका ज्ञाताद्रष्टा भाव जाग्रत हो जाए, उसे अपनी अनंत शक्ति का 'भान हो जाए और स्वयं की राग-द्वेष, कषाय आदि रूप विभावदशा से स्वयं को मोड़ ले, तो आत्मा के स्व स्वरूप को पाना सुलभ हो जाएगा। आत्मा के स्वरूप को पाने की यह प्रक्रिया ही तनावमुक्ति की प्रक्रिया है। राग-द्वेष या मोह-ममता और इन्द्रियजन्य आकांक्षावश व्यक्ति अपना सुखं इच्छाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति में एवं 'पर' पदार्थों में, भोग में, खोजता है और 98 श्री आत्मशुद्धि, केशरसूरिजी म.सा., 4/1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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