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________________ और लालसाएँ चित्त में जागती हैं, ये क्षण भर के लिए सुख देती हैं। ये प्रवृत्तिकाल (भोगकाल) में सुख देती हैं, किन्तु परिणामकाल में अधिक समय तक दुःख देती हैं। 26 तृष्णा जन्य दुःख तनाव का ही पर्यायवाची शब्द है। मनोवैज्ञानिक जिसे तनाव कहते हैं, जैन आगमों में उसे दुःख कहा गया है। बौद्ध-परम्परा उसे तृष्णा या दुःख आर्य-सत्य कहती है। चित्त की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं। जब चित्त अस्थिर या चंचल अथवा तृष्णा, कषाय आदि से युक्त होता है तो वह विक्षिप्त चित्त कहा जाता है और जब वह इनसे रहित होता है तो वह स्थिर, शांत हो जाता है तथा समाहित चित्त कहा जाता है। विक्षिप्त चित्त दुःख (तनाव) युक्त होता है और समाहित चित्त को कोई दुःख नहीं होता है। विक्षिप्त चित्त जब समाहित चित्त हो जाता है तो तनाव समाप्त हो जाते हैं। समाहित चित्त होने पर भी समस्याएँ आ सकती हैं, किन्तु वह उसमें अनुकूल-प्रतिकूल का संवेदन न करके तनावमुक्त रह सकता है। तनावमुक्त अवस्था चित्तशुद्धि या चित्त स्थिरता से सम्भव है और इसके लिए उपाय बताते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि -"भाव शुद्धि ही चित्त को निर्मल व राग-द्वेष से मुक्त बना सकती है। 28 निरालंबन ध्यान से मन को दीर्घकाल तक एकाग्र कर चित्त को स्थिर किया जा सकता है। इस पद्धति से चित्त विचार-शून्य हो जाता है। विचार-शून्य अवस्था पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। 2 उत्तराध्ययनसूत्र – 14/3 26 चित्त और मन - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 245 " वही, पृ. 248 28 चित्त और मन - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 244 १ वही, पृ. 248 30 निरालंबन ध्यान की पद्धति के लिए देखें - चित्त और मन, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 249 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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