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________________ __86 2. 1. मिथ्यात्व-अध्यवसाय रूपी चित्त से जो प्रकंपन होते हैं, वे दृष्टिकोण को । भ्रांत बनाते हैं और जब दृष्टिकोण सम्यक नहीं होता तो गलत धारणाएँ बनती हैं। ये गलत धारणाएँ व्यक्ति को तनावमुक्ति की अपेक्षा तनावग्रस्तता की ओर ले जाती हैं। अवितरत-अध्यवसाय चित्त का दूसरा प्रकार है। इसको तृष्णा भी कहा जाता है। अविरति की भावना से तृष्णा उत्पन्न होती है। यह तृष्णा निरन्तर बनी रहती है। यह तृष्णा स्थूल चित्त में प्रकट होकर लोभ या लोभ-जनित प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करती है।" इस प्रकार अविरतभाव रूप यह तृष्णा नियमतः तनाव उत्पत्ति का ही एक हेतु है। 3. तीसरा चित्त है – प्रमाद-चित्त - यह मूर्छा उत्पन्न करता है। इसके कारण आत्म-सजगता समाप्त हो जाती है। यह असजगता अचेतन मन में तनाव के कारणों को जन्म देती है। दमित इच्छाएँ और वासनाएँ इसी प्रमत्त चित्त में निवास करती हैं। प्रमत्त चित्त को ही कर्म कहा गया है, क्योंकि यह कर्म बन्धन का हेतु है। चौथा चित्त है- कषायचित्त – यह चित्त क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ, राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता - इन सबको उत्पन्न करता है।23 ये कषाय वृत्तियाँ भी तनाव का मूलभूत हेतु है। कषाय-चित्त में रहा हुआ राग चेतना को अशुद्ध बनाता है। जितना राग होता है, उतना ही चित्त अशुद्ध या तनावयुक्त होता है। तनावमुक्ति के लिए वैराग्य का रास्ता बताया गया है। भगवान् महावीर ने कहा है -“खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा 25 अर्थात् जितनी कामनाएँ, आकांक्षाएँ 21 वही, पृ. 242 - वही, पृ. 243 Vवही, पृ. 243 24 वही, पृ. 245 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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