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जी रहे हैं, वे हर तरह की बाधाओं के बावजूद सुख-शांति के स्वामी बने रहते हैं।
मनुष्य तो शक्तियों और सम्भावनाओं का संवाहक है। वह अपने आपको अमृत बना सकता है, देवता बनकर जी सकता है। जीवन में दिव्यता आ जाये, तो मनुष्य के लिए मनुष्य होना सबसे बड़े गौरव की बात होगी। वर्तमान जीवन में स्वर्ग-सुख होगा।
हर मनुष्य परम सत्ता से सम्पन्न है। वह शान्ति, प्रेम और ज्ञान का सागर है। आनन्द उसका मूल स्वभाव है और मुक्ति उसका अधिकार । अपने आपको भुला दिये जाने के कारण उसकी सारी विशेषताएं नकारात्मक हो गई हैं। इस नकारात्मकता ने ही मनुष्य को दुःखी, स्वार्थी और विकृत बनाया
धर्म की शुरुआत स्वयं से होती है। धर्म के नाम पर जो धर्म चलते हैं, वे सब धर्म के ढिंढोरे हैं। सबकी अपनी-अपनी डफली है और अपने-अपने राग। धर्म का मार्ग किसी निश्चित राह से नहीं गुजरता। उसे खोजना पड़ता है। सच तो यह है कि जब मनुष्य जगता है, तभी धर्म का जन्म होता है। अपने प्रति, अपने भीतर बैठी ध्रुवता के प्रति सचेत होने पर ही धर्म ईजाद होता है। धर्म या अध्यात्म किसी सुनसान पहाड़ी या नदिया के किनारे वटवृक्ष की छाया में नहीं जन्मते, इनकी जन्मस्थली तो मनुष्य का अन्तरहृदय है।
धर्म मनुष्य की निजी विशेषता और उपलब्धि है। निजत्व से हटा दिये जाने के कारण ही, मनुष्य के कल्याण के लिए जन्मा धर्म, खुद मनुष्य के लिए ही खतरा बन गया है।
Jain मनुष्य
और धर्म/२
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