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चैतन्य-ध्यान और सम्बोधि-ध्यान की विधियां एक प्रयोग भर हैं, भीतर के रिक्त आकाश में प्रवेश पाने के लिए। मानव-मन में मुक्ति की चेतना जग जाये, एक बार अन्तरबोध हो जाये, तो फिर तो सारे मार्ग प्रशस्त हैं। अगर कोई यह सोचे कि दो-पांच दिन ध्यान का अभ्यास करके बड़बड़ाते, धमाल मचाते मन को चुप किया जा सकता है, तो यह सम्भव नहीं है। जल्दबाजी न करें। धीरज धरें। वह धीरे-धीरे धीमा पड़ता है। अन्ततः शान्त और शून्य भी होता है। परिणाम नहीं, बीज के सिंचन पर ध्यान दें, फल-फूल अनायास खिल आएंगे।
हृदय की ओर बढ़ें, हृदय को खोलें। अन्तस्-आकाश को खोज लिया जाये, तो आत्म-स्वातन्त्र्य के विहग मुक्त विहार कर सकते हैं। तब ऐसे अहोभाव में जीना होता है, जिसमें सबको समाविष्ट किया जा सकता है।
मृत्यु हमें मिटाए, उससे पहले, हम मृत्यु से जुड़े पहलुओं को मिटा डालें, ताकि मृत्यु नहीं, मुक्ति हो । मृत्यु भी निर्वाण का महोत्सव हो। ज्योति का परम ज्योति में विलय हो।
तमसो मा ज्योतिर्गमय. . . . असतो मा सदगमय. . . . मृत्योर्मा अमृतंगमय. . . .
हे प्रभु! मैं अंधा हूँ, दृष्टा वनाओ। भ्रमित हूँ, अमृत बनाओ। बूंद हूँ, सागर बनाओ।
O my God! Tam only a drop, make me an ocean.
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