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________________ Jain नजर आएगा। कभी प्रकृति की गोद में जाकर बैठो तो पता चले कि वह हर फूल, हर डाल पर है । झरनों से लेकर पहाड़ों तक, समुद्र से लेकर आसमान तक, फूलों से लेकर चांद-सितारों तक वही तो विविध रंग में मुस्काता है, लहराता है । परमात्मा की उपस्थिति का अहसास तभी होता है, जब हमें अपना अहसास हो । जैसे ही हमें अपना अहसास होता है, हम उसे अपनी ही बांहों में मौजूद पाते हैं। मैंने उसकी कोई प्रतिमा नहीं बनायी, पर जो भी प्रतिमाएं हैं, उन सबमें उसको देख रहा हूँ । फूलों से सौरभ आती है और प्रभात के पुष्प परमात्मा को समर्पित कर दिये जाते हैं। किससे बचूं, किससे लगूं - यह सोच ही कहाँ ! जब पूरे अस्तित्व में उस परम-आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर की मौजदूगी महसूस होती हो । सम्भव है, बहुत सारे लोग दुनियादारी के भुलावे में परमात्मा को भूल जाएं अथवा न भी मानें, पर व्यक्ति जब कभी भी स्वयं को व्यथित और असहाय पाता है, कम से कम उस समय तो अवश्य ही उसका अन्तरहृदय स्वतः परमात्मा को पुकार उठता है । हालांकि यह सच है कि परमात्मा किसी का भला-बुरा नहीं करता, कर्तृत्व-भाव से मुक्त होने के कारण ही वह सत्ता परमात्मा कहलाती है। पीड़ा और संघर्ष की वेला में भी हम परमात्मा को इसलिए याद करते हैं, ताकि हमारा मनोबल बना रहे, परमात्मा की शक्ति हमें नैतिक बल प्रदान करती रहे । परमात्मा के ज्योति-प्रदेश सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हैं। जो भी आत्माएं जन्म-मरण की संस्कार - धारा से मुक्त हो जाती हैं, उनके निर्मल आत्म- प्रदेश सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर अपनी विराटता को उपलब्ध कर लेते हैं, बूंद महासागर हो जाती है। परमात्मा/ ४४ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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