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मानता है, उसके लिए अध्यात्म के सारे द्वार-दरवाजे बंद हैं।
उन लोगों की मानसिकता संकीर्ण है जो अपने पूर्वापर अस्तित्व पर विश्वास नहीं रखते। आत्म-निश्चय हुए बगैर तो हम सर्वतोभावेन मृदुल और पवित्र नहीं हो सकते। हमारा मन चिंतित होगा और बुद्धि बांझ । सम्भव है, शरीर अथवा व्यवहार में हमसे कोई पाप न हो, पर मन तो पाप करता ही रहेगा। दिव्यता का संवाहक कीचड़ से सना कमल होगा।
मैं पुण्य रूप था, पाप बना, मेरा जीवन है पंक सना। गढ़नी थी उज्ज्वल मूर्ति एक, पर मैं धुंधला इतिहास बना ।
मनुष्य की दुर्दशा तो देखो, वह क्या से क्या हो चला है। मनुष्यता में पशुता सिर चढ़ बैठी है। इतना स्वार्थ ! झूठ-सांच ! क्या यही हमारा आत्म-गौरव है? क्या यही कुल-गौरव, समाज-गौरव या धर्म-गौरव है?
हमने विषधर सांप देखे हैं, पर यह मत भूलो कि मनुष्य भी विषधर है। वह जनम-जनम का विषपायी है। उसके सूक्ष्य शरीर में इतना जहर है कि वह अमृत-घर में जाकर भी वहाँ से विषपान कर आयेगा। शिक्षा की कमी तो दिन-ब-दिन मिटती जा रही है, पर बोध न होने के कारण वह धूम्रपान को सुख मानकर अपनी धमनियों में जहर फैला रहा है। बेचैनी से बचने के लिए शराब पीकर शरीर-शक्ति को काट रहा है। पौष्टिकता के नाम पर मांसाहार करके मानो अपने-आपको ही खा रहा है।
Jain स्वर्ग-नरक/३८
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