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स्वर्ग-नरक
श्रद्धा का पहला केन्द्र-बिन्दु मनुष्य की अपनी आत्मा ही है। जिसका अपने-आप पर विश्वास नहीं, वह औरों पर क्या विश्वास करेगा ! आत्म-विश्वास के अभाव में व्यक्ति खुद भी विश्वसनीय नहीं रहता।
आत्म-भाव का सर्वोदय होने पर ही व्यक्ति अहंकार, मनोविकार और देह-राग के अंध-तमस् से बाहर जा सकता है। सार-सूत्र एक ही है कि हमारा 'मैं', हमारे मनोविकार और देह-राग कम हो। हमारे काम-क्रोध की ग्रन्थियां शिथिल हों। आत्म-भाव और आत्म-विश्वास ही हमें अपने निजी परमात्मस्वरूप की ओर बढ़ा सकते हैं। जो स्वयं के जीवन को मात्र शरीर के ह्रास और विकास तक ही सीमित रखता है, उसके सुख को ही सुख मानता है, उसके खून के रिश्ते को ही रिश्ता
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