SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही वह जंगलों और गुफाओं की ओर चल पड़ा। रास्ते में पड़े सरोवर में पानी पीने के लिए उतरा। पानी शान्त, निस्तरंग था, आईने का काम कर गया। और यूं आत्मबोध हुआ। जाग उठी सत्ता-भीतर सोये पड़े सिंहत्व की। मनुष्य का दुर्भाग्य, उसने सदा मुखड़ा ही दर्पण में देखा, अपने आपको देखने की कोशिश नहीं हुई। सिकन्दर या हिटलर ने चाहे जितने लोगों को अपने प्रति झुकाया होगा, पर सम्मान गांधी-पुरुष ही पा सकते हैं, पूजा बुद्ध-पुरुषों की ही होती है। ‘सम्बोधि' कोई धर्म या धर्म की शब्द-परम्परा नहीं है। यह बोध है, आत्मबोध है, भीतर बैठे देवता को जगाने का उपक्रम है। हर प्राणी आत्म-सम्पदा से युक्त है, फिर भी आत्म-बोध के अभाव में आत्मवान् नहीं है। आखिर मनुष्यात्मा अपने आपको भूली क्यों? पहली बात तो यह है कि जो चीज सदा साथ हो, पास हो, व्यक्ति को उसका मूल्य ही नहीं लगता। खोने से ही वस्तु के महत्त्व का बोध होता है। मछली पानी में रहे, तो पानी का महत्त्व सामान्य लगता है। बाहर निकलने पर प्राणों के लिए जो तड़फन होती है, उसी से पता चलता है कि पानी का महत्व क्या है। मनुष्य जीवनभर आत्मा को भूला रहता है। शरीर से प्राण-पखेरू उड़ने को होते हैं और आत्मा के बगैर जीवन मुर्दा लगता है, तभी आत्मा के महत्त्व और निस्तार के प्रतिमानों का हमें अहसास होता है। आत्मा के सदा साथ रहने के बावजूद, मनुष्य अपने विकृत चित्त के मायाजाल में ऐसा फंसा हुआ रहता है कि आत्म-सुख की उसे स्मृति ही नहीं आती। वह विकारों की आपूर्ति करके ही स्वयं को संतुष्ट-परितृप्त पाता है। आत्म-सुख Jain Education International For Personal & Private use अन्तर-गुहा में प्रवेश/२५y.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy