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से मृत्यु तक का सफर भर है। जीवन, जन्म-जन्मान्तर की परम्परा है। संसार का सबसे गहरा सत्य है। आखिर जितने भी सत्य हैं, सब जीवन की गोद में ही पलते हैं। यहाँ तक कि हर तरह की बदी और वीभत्सताएं जीवन में ही अपना घर बनाए रखती हैं।
जीवन न मंगल है, न अमंगल। वह कोरे कागज की तरह है। यह हम पर निर्भर है कि हम उस पर कीचड़ उछालें या इन्द्रधनुष उकेरें। राक्षस और देवता दोनों जीवन के गिरते-चढ़ते आयाम हैं। मनुष्यता दोनों के मध्य है। मनुष्य यदि अपने भीतर बैठे स्वामी से प्रेम करने लग जाये तो जीवन ही मानवता का वह पहला मंदिर होगा जहाँ से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की घंटियों की टंकारें सारे जहान में फैलती हुई दिखाई
देंगी।
आत्म-बोध के अभाव में ही मनुष्यात्मा स्वयं को भूली-बिसरी बैठी है। वह भीतर बैठे भगवान को नहीं, वरन् भीतर के स्वार्थ को ही मूल्य देती रही है। उसके लिए जीवन अतीत का नया संस्करण नहीं, वरन् मन की खटपट के चलते शरीर से शरीर की खिलवाड़ भर है।
किसी समय एक घटना बहुचर्चित रही है कि एक शेर का बच्चा अपना आपा भूलकर भेड़ों के टोले में जा घुसा। जात का असर ! वह गरजने की बजाय ‘मिमियाया' करता। इस तरह उसकी जिन्दगी ही गुजर गयी, पर जब उसने दूसरे शेरों को गरजते हुए सुना, भेड़ों पर टूटते देखा तो पहली बार उसके अन्तरमन में यह प्रश्न कौंधा–अगर 'वे' भेड़ें नहीं हैं, तो फिर मैं कौन हूं। अपने इस प्रश्न के जवाब में वह काफी भटका, वर्षों विचलित और अभीप्सित रहा। एक दिन अकेले
Jain आत्म-विस्मृति/२४
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