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________________ को सदा प्रफुल्लित रखना चाहिये। हम शरीर नहीं, शरीर में हों। मन नहीं, मन में हों। अपनी दिव्यता में ही देवत्व है। मन में पवित्रता और हृदय में प्रफुल्लता-सबके लिए यह सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है। जीवन में चाहे अनुकूल परिस्थिति बने या प्रतिकूलदोनों ही हालातों में अन्तरमन को निष्प्रभावी रखना व्यक्ति का देहातीत होकर जीना है। मैं कौन हूँ-इसका सदा बोध रखो, ताकि निन्दा-प्रशंसा, पीड़ा-व्यामोह हमें घेर न सकें। चेतना की मुस्कान हर हाल बनी रहे। सोहं-मैं वह हूँ। शिवोहम् - मैं शिव हूँ, शिव रूप हूँ। कायगत मंदिर में शिवत्व विराजमान है। शिव व्यक्तिवाचक नहीं, स्वभाववाचक है। शिव यानी कल्याण । जिन गुणों से दिव्यता, पवित्रता और पूर्णता आत्मसात् हो, उसी से मनुष्य का, सृष्टि का कल्याण है, निर्वाण है। Jain Education International For Personal & Private useअन्तर-गुहा में प्रवेश/२१ry.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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