SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसार हो या संन्यास, दोनों ही न तो इसमें बाधक हैं और न ही सहायक। अपने-आपको पहचानना हो, तो इसमें दाढ़ी बढ़ाना या माथा मुंडवाना, चोटी लटकाना या भभूत चढ़ाना अथवा नाम-वेश बदलना कहाँ आधारभूत बनते हैं? अपनी ओर से पूरी तरह समर्पित और अभीप्सित तैयारी है, तो हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, प्रवेश पाया जा सकता है, अपने आपको पहचाना जा सकता है। ___ मैंने मुनित्व का वरण किया, लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरे आत्म-ज्ञान में मेरा यह मुनित्व उतना बड़ा साधन नहीं बना, जितना कि अपने आप में, अपने आपके प्रति जगने वाली जिज्ञासा । व्यक्ति ही साधक बनता है और व्यक्ति ही बाधक । साधन सहायता दे सकते हैं, पर पहुंचा नहीं सकते। पहुंचता तो व्यक्ति खुद है। हाँ, व्यक्ति की चित्त-शुद्धि में ये संयम-साधन अवश्य सहायक बनते हैं। मेरे देखे, अपने आपको जाने बिना व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता और स्वयं के प्रति ईमानदार हुए बगैर अपने अहंकार, विकार और कषाय-वृत्तियों से मुक्त नहीं हो सकता। विकार-रहित चित्त का नाम ही निर्वाण है, मानव की मुक्ति है। Jain आत्म-परिचय/१२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy