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________________ मूल परिचय पाकर अहोभाव से प्रफुल्लित हो उठोगे । जीवन की धारा ही बदल जाएगी। झूठे सुख के पीछे होने वाली पागलदौड़ खत्म हो जाएगी। आदमी फिर जिएगा बोधपूर्वक, शांति और प्रेम का सागर बनकर । आत्म-परिचय दूसरी शब्दावली में आत्म-ज्ञान है । जनमानस में एक भ्रांति घर कर गयी है कि आत्मज्ञानी नहीं हुआ जा सकता। जबकि आत्म-ज्ञान न टेढ़ा काम है, न ही विरला । अपने आपको पहचानना भला कौन-सा टेढ़ा काम है । खुद को हर कोई जान सकता है। मैंने जितनी सहजता से अपने अन्तर के आकाश में उसका बोध पाया, उससे ही मैं कह सकता हूँ- अपने-आप से ऊपर उठ जाओ, तो अपने आपको सहजतया पहचान लोगे । आत्म-बोध के बाद समाज से सम्पर्क समाप्त नहीं होता । दृष्टिकोण बदल जाता है। स्नेह रहता है, पर उस स्नेह और प्रेम के प्रतिकार में किसी तरह की प्राप्ति की आकांक्षा नहीं रहती। वह औरों को प्रेम देता हुआ इसलिए नजर आएगा क्योंकि उसने अपने आपको जानकर यह बोध प्राप्त कर लिया है कि उसमें भी वही सत्ता है । प्रेम उसका स्वभाव बन जाता है। उसे प्रेम और पूजा में कहीं कोई फर्क नजर नहीं आता । तब मनुष्यता में रहने वाली पूज्यता की भावना भी सरलता में तब्दील हो जाती है । निंदक - प्रशंसक सब पर उसकी समान दृष्टि रहेगी। वह सबसे प्यार करेगा । आत्म-बोध के मायने अपने आपको प्रताड़ित करना नहीं है । यह तो स्वयं को समझना है । फिर देह तो रहेगी, पर देह के विकार उसे उद्वेलित नहीं कर सकेंगे। वह देह के धर्म को जान चुका होगा। रोग तो काया में उठेंगे, पर उसकी पीड़ा Jain Education International अन्तर- गुहा में प्रवेश / ६ For Personal & Private Use On! itrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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