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________________ काया बनती है, विस्तार पाती है, शिथिल होती है और एक दिन चिता पर चढ़ जाती है। यह यात्रा मनुष्य मात्र की है, प्राणीमात्र की है। मनुष्य का जन्म और समापन होता है, पर जीवन का न आदि है न अन्त। वह रूपान्तरण पाता है। काया के चोगे बदलता है। अलग-अलग मंच पर अलग-अलग अभिनय करता है। पर मिटता नहीं है। एक बार नहीं, मृत्यु के द्वार से सौ बार भी गुजर जाये, तब भी वह अपना अस्तित्व बनाये रखता है। तो क्या जीवन पारा है? नहीं, जीवन पारा नहीं है। पर हाँ, समझने के लिए पारे की उपमा दी जा सकती है। टूटता है, बिखरता है, आग पर चढ़ता है, फिर भी जैसा था वैसा ही बना रहता है। तो जिसे हम 'जीवन' नाम देकर सम्बोधित कर रहे हैं, वह आखिर क्या है? इस ‘क्या' के जवाब में ही हमारा आत्म-परिचय समाया हुआ है। आत्म-परिचय प्राप्त करने का जो प्रयास है, पारम्परिक शब्दावली में उसी का नाम 'साधना' है। लोगों की दृष्टि में 'साधना' शब्द मानो कोई ऊपरी दुनिया का हौवा है। बड़ा टेढ़ा-मेढ़ा और सुनने में बड़ा कठिन लगता है। यदि हम साधना और संन्यास को आत्म-परिचय का प्रयास कह दें, तो प्रवेश का रास्ता काफी सहज लगेगा। बंधी-बंधायी धारणाएं शिथिल होंगी, देखने-विचारने की दृष्टि सुलभ होगी। आत्म-परिचय प्राप्त करना थोड़ा कठिन जरूर है, पर अगर हम इसके साथ गम्भीर होने की बजाय सहज हो जायें तो हम अपनी गहराई में त्वरित कदम रख सकते हैं। शुरू में तो यह यात्रा मानसिक प्रसव-पीड़ा जैसी कष्टकारक लग सकती है, पर धीरे-धीरे इतनी सुखद और रसपूर्ण लगेगी कि अपना Jain आत्म-परिचय/८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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