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भगवत्ता फैली सब ओर
जो मूच्छित है, वह बहिरात्मा है। जाग्रत पुरुष अन्तरात्मा है। परमात्मा स्वयं की परास्थिति है। जो स्वयं को पूछता है कि मैं कौन हूँ, अन्तरात्मा वही है। अन्तरात्मा, वस्तुत्व का ज्ञाता है, निजत्व का साक्षी है, जिसे स्वयं से कुछ पड़ी ही नहीं है। प्रतिबिम्ब को ही बिम्ब मान रखा है, वही बहिरात्मा है। परमात्मा तो स्वयं की समग्रता का स्वयं में अधिष्ठान है।
कुन्दकुन्द कहते हैं कि अन्तरात्मा के उपायों के द्वारा बहिरात्मपन को छोड़ो। पता है, बहिरात्मपन का सम्बन्ध किससे है ? किससे छोड़ोगे इसे ? मन, वचन और काया से बहिरात्मपन को छोड़ो और अन्तरात्मा में प्रारोहण करो। परमात्मा का ध्यान तभी सध पायेगा। परमात्मा का ध्यान तो आखिरी चरण है। बहिरात्मपन को छोड़ना पहली शर्त है और अन्तरात्मा में प्रारोहण करना दूसरी शर्त । बाहर के रास भी रचाते रहो और आत्मजगत का कार्य भी साधना चाहो तो कैसे सम्भव होगा? एक पंथ दो काज वाली उक्तियाँ जीवन-विज्ञान में लागू नहीं होती। यहाँ तो एक पंथ और एक काज होता है। दोनों में रस लोगे, तो न इधर के रहोगे न उधर के। अजीब खिचड़ी बन जायेगी।
हम अब तक ऐसा ही तो करते चले आये हैं। कुछ देर धर्म कर लेते हैं और कुछ देर बेईमानी। मन्दिर में तो जाकर परमात्मा की पूजा करते हैं और बाजार में आकर मिलावटखोरी। जिस दिन बाजार भी तुम्हारे लिए मन्दिर हो जायेगा
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