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पकड़ का छूटना संन्यास की पहल कपड़े उतारो, नंगे होो। साधुता की बड़ी खतरनाक प्रक्रिया अपना रखी है। नग्न करके यदि साधु-संन्यासी को बनवासी बना दो तो खतरे फिर भी कम हैं। तुम एक व्यक्ति को नग्न करके शहर में भेज रहे हो। नग्नता बनवासी के लिए है, शहर के लिए नहीं। यह प्रयास तो बनवासियों को शहर में लाने के हैं और शहरवासियों को बनवास देने के। यदि सारा शहर जंगल में चला गया तो जंगल, जंगल कहाँ रहेगा, जंगल शहर बन जायेगा।
बाह्य परिवर्तन को इतना अधिक मूल्य मत दो। स्वाभाविक तौर पर बाह्य क्रान्ति सम्भव हो तो उसका स्वागत करो। अन्यथा जीवन मूल्यों की परिशुद्धि पर ही अपना ध्यान और चिन्तन केन्द्रित करो। नग्न है तो साधु मानते हो और बेनग्न को अमुनि। यह साधुता का सही मापदण्ड नहीं है। कुन्दकुन्द तो कहते हैं—सुत्ता अमुणि, असुत्ता मुणि। जो सुप्त है, मूच्छित है, वह अमुनि है। जो अमूच्छित है, असुप्त जागृत है, वह मुनि है। इस नग्नता के चलते हमने अपनी दृष्टि कितनी संकुचित बना ली है। पुरुष तो फिर भी नग्न हो जायेगा, नारी नग्न न हो पायेगी। हालांकि नारी भी निर्वस्त्र हो सकती है। पर इस दूषित समाज के चलते नहीं। महिला सन्तों में केवल लज्जा ही निर्वस्त्र हुई है। पुरुष तो कपड़े प्रोढ़ कर भी नंगा ही है। देख नहीं रहे हो उसकी आँखों में झलकती वासना। रास्ते पर ही क्यों न चलना हो, उसकी दृष्टि नारी के जन्मस्थल और
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