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भगवत्ता फैली सब ओर
मौके आते हैं, जहाँ चुनने की प्रक्रिया अपनायी जाती है। चुनाव का अर्थ हुआ यह या वह। ये 'यह' या 'वह' ही तो भटकाव के सूचक हैं। 'चुनने' का अर्थ हुआ कि व्यक्ति ने हस्तक्षेप किया। क्रियाएं हों, किन्तु प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए। जैसे ही हमने चुना कि मन का निर्माण हुआ। 'चुनना' होने के विपरीत है। जीवन की अस्मिता चुनने में नहीं, वरन् 'होने' में है। इसलिए चुनो मत, साक्षी बनो। बीज साक्षी है वृक्ष का।
साक्षीभाव ही मन के संसार से मुक्त होने का प्रयोग है। मन भी क्या अजीब खिचड़ी है, जिसमें ऐसे-ऐसे विचार भरे रहते हैं जिनका एक दूसरे से सम्बन्ध नहीं होता। उसमें ऐसी तस्वीरें मौजूद रहती हैं, जिनमें कोई तरतीब ही नहीं होती। साक्षीभाव विचारों के विरोधाभास से हमें ऊपर उठाता है।
हमारे प्रयास 'बुद्धत्व के फूल' खिलाने के होने चाहिए। जहाँ बुद्धत्व है, वहाँ स्वर्ग ही स्वर्ग है। बिना बुद्धत्व के तो स्वर्ग भी नरक बन जायेगा। स्वर्ग के कारण बुद्ध-पुरुष नहीं है, वरन् बुद्ध-पुरुषों के कारण स्वर्ग है। यदि हम किसी तीर्थंकर-पुरुष को नरक में ले जायें, तो नरक, फिर 'नरक' रह ही न पायेगा। नरक भी स्वर्ग बन जायेगा। बुद्धों के विहार से ही स्वर्ग बन जाता है, फिर चाहे वह नरक ही क्यों न हो।
जिनके पुण्य प्रबल हैं वे माटी को छुएगे तो सोना बन जायेगा। जब पुण्य ही अधमरे हो गये हैं तो सोने को भी
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