SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साक्षीभाव है अाँख तीसरी ४६ मैं तो रहों शहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में। कहे कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में ।। 'मैं' तो तेरे पास में। इस 'मैं' को पहचानना ही तो सम्यक्त्व का आचरण है। अच्छाई के संवाद का अर्थ यही है कि 'मैं' को जान लिया। तीन तरह के लोग होते हैं -संसारी, संन्यासी और संबुद्ध । जिसे 'मैं' से कोई सम्बन्ध हो नहीं है, वह संसारो है । संन्यासी वह है जो पूछता है 'मैं' कौन हूँ। संबुद्ध-पुरुष, 'मैं' को जानता है। यह जानना ही व्यक्ति की ज्ञानमय दशा है। इसलिए जब कैवल्य घटित होता है, तब और सब तो जाता रहता है, केवल 'ज्ञान' बचा रहता है । _ 'मैं' कौन हूँ-यह पूछने वाला संन्यासी और न पूछने वाला संसारी है। 'मैं' कौन हूँ, जो यह जानता है वह संप्रज्ञात-पुरुष है, संबुद्ध-चेतना है। ज्ञानमय दशा को प्राप्त करने के लिए कुछ ढूढ़ना नहीं पड़ता, वरन् पहचानना पड़ता है। यहां करना नहीं, वरन् होना महत्त्वपूर्ण है। करना क्रियाकर्म है और होना ज्ञानमय है। करना, ऊपर-ऊपर-होना, सतह को छूना है। करना 'डूइंग' है और होना 'बीइंग'। आत्म-दर्शन 'होने' का संयोग है। 'होना' स्वभाव में रहना है। स्थित-प्रज्ञ और एकाग्रचित्त होने का यही रहस्य है। स्वयं की ज्ञानमय स्थिति के लिए चुनाव रहित सजगता चाहिए। चुनाव मन की उलझन है। हर दिन सैकड़ों ऐसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003967
Book TitleBhagwatta Faili Sab Aur
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy