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सम्भावनाएँ आत्म-अनुष्ठान की
चाबी है, ताला भी है, मगर वह ताले में नहीं लग रही है । यह मूर्छा, सम्मोहन तोड़ने के लिए ही तो कुन्दकुन्द कहते हैं
'गाणं चरित्त सुद्धं लिंगग्गहरणं च दंसरण - विसुद्धं । संजम - सहिदो य तवो, थोत्रो वि महाफलो होइ ।।'
ज्ञान चरित्र से शुद्ध होता है और लिंग का ग्रहण दर्शन से शुद्ध होता है । तप यदि संयम सहित हो तो वह थोड़ा होकर भी महाफलदायी होता है ।
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कुन्दकुन्द के वक्तव्य की पहली सीख तो यह है कि ज्ञान चरित्र से शुद्ध होता है, इसलिए चरित्र ज्ञान की कसौटी है । हम जिस चीज का पालन करते हैं, उसे जानना जरूरी है और जिसे जान लिया, उसका पालन करना जरूरी है। ज्ञान सत्य का आचरण है और आचरण का सत्य ज्ञान है । दोनों ही अनिवार्य हैं ।
हमने जिस सत्य को जाना है, वह हमारे जीवन में भी घटित होना चाहिए। जिस चरित्र का हम पालन करते हैं, उसका हमें ज्ञान होना भी जरूरी है । पहले जानो, फिर करो । करने से पहले जानो ताकि करना जानने की कसौटी हो । इसलिए ज्ञान शुरुआत है, लेकिन चरित्र ज्ञान की कसौटी है । कितना भी जान चुके हो, ज्ञान प्राप्त कर लिया है, यदि इस ज्ञान को आचरण में नहीं उतारा तो वह ज्ञान खोखला है । जानकर भी अधूरे रहे । ज्ञान जीवन में कहाँ उतरा !
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