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________________ [ ४४ ] खड्ग है । क्रोध सब कुछ हर लेता है । मानव जो तप, संयम और दान आदि करता है, उस सबको वह क्रोध के कारण नष्ट कर डालता हैं । अतः क्रोध को त्यागना ही श्रेयस्कर है । इसी ग्रन्थ में यह भी निर्दिष्ट है कि क्रोधी पुरुष जो कुछ पूजन करता है, प्रतिदिन जो दान करता है, जो तप करता है और जो हवन करता है, उसका उसे इस लोक में कोई फल नहीं मिलता । उस क्रोधी के सभी कार्य वृथा होते हैं । 2 विष्णुपुराण में भी इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि वत्स ! मानव द्वारा बहुत क्लेश से संचित किया हुआ यश और तप को भी क्रोध सर्वथा विनष्ट कर डालता है । अतः मूर्खों को ही क्रोध आता है, ज्ञानियों को नहीं । * क्रोध पर विजय प्राप्त करने में याज्ञवल्क्योपनिषत्कार का वक्तव्य सहायक है कि यदि तू अपकार करने वाले पर क्रोध करता है, तो क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता, जो सबसे अधिक उपकार करने वाला है ।" क्रोध से सब कार्य वैसे नहीं बनते जैसे शांति से ।° 5 गीता में क्रोध को आसुरी वृत्ति एवं नरक का द्वार' कहा गया है, और यह बताया गया है कि क्रोध-मुक्त पुरुष कल्याण का आचरण करता है ।" अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, गीता में दैवी सम्पदा को प्राप्त पुरुष का लक्षण बताया गया है । 1° गीता में क्रोध की कटु आलोचना भी की गयी है । उसमें लिखा है कि क्रोध से मूढ़ता पैदा होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रान्त हो जाती है, स्मृति भ्रान्त होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर प्राणी १. क्रोधः प्राणहरः शत्रुः क्रोधोमितमुखो रिपुः क्रोधोऽसि सुमहातीक्ष्णः सर्व क्रोधोऽकर्षति । तते यतते चैव यच्चदानं प्रयच्छति, क्रोधेन सर्वहरति तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत् ॥ - वामन पुराण S २. यत् क्रोधनो यजति यच्च ददाति नित्यं, यद्धा तहस्तपति यच्च जुहोति तस्य । प्राप्नोति नैवकिमपीह फलं हिलोके, मोघं फलं भवति तस्य हि कोपनस्य ॥ - - वही ३. सवितस्यापि महतो वत्स क्लेशेन मानवैः । यशसस्त पसश्चैव क्रोधो नाराकरः परः । - विष्णुपुराण ४. विष्णुपुराण, १.१.१७ ६. श्रीमद्भागवत, ( ८. ६. २४ ) ७. गीता, १६.२-३ वही, १६.२१ ९. वही, १६. २२. ५. याज्ञवल्क्योपनिषद्, २६ Jain Education International १०. गीता, २.६३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003966
Book TitleKshama ke Swar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJain Shwetambar Shree Sangh Colkatta
Publication Year1984
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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