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________________ [ ३७ ] चाहे जितना अपना विकास कर ले, परन्तु अन्त में उसका पतन अवश्यमेव है । जो व्यक्ति क्रोध को मन में दमित किये हुए साधना के क्षेत्र में आगे चरण बढाता है वह 'उपशान्तकषाय' नामक ग्यारहवें 'गुणस्थान' अर्थात् आध्यात्मिक विकास की एक उच्च अवस्था पर आरोहरण करके भी पतित हो जाता है । सचमुच, दमित क्रोध राख में छिपी अग्नि के समान है, जो हवा के संयोग से राख के हटते ही पुनः प्रगट हो जाती है । इसी दृष्टि से किसी के प्रति हृदय में क्रोध लिए रहने की अपेक्षा उसे प्रगट कर देना अधिक अच्छा है, जैसे देर तक सुलगने की अपेक्षा पल भर में जल जाना । इस सम्बन्ध में विलियम ब्लेक ने अपना अनुभव निम्न शब्दों में लिखा है --- I was angry with my friend; I told my wrath, my wrath did end. I was angry with my foe; I told it not, my wrath did grow : ( - A Poison Tree ) अर्थ – मैं अपने मित्र पर क्रोधित था । मैंने उस पर अपना क्रोध प्रगट कर दिया । और मेरे क्रोध का अन्त हो गया । मैं अपने शत्रु पर क्रोधित था । मैंने अपना क्रोध प्रगट नहीं किया । और मेरा क्रोध बढ़ता रहा । दमित क्रोध स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इसकी विस्तृत चर्चा हम अगले पृष्ठों पर करेंगे । यहाँ इतना अवश्य उल्लेखनीय हैं कि क्रोध का प्रगटन स्वास्थ्य के लिए उतना हानिकर नहीं है, जितना उसका दमन । दमित क्रोध से ही शारीरिक एवं मानसिक तनाव तथा आकुलता बढ़ती है और यह स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव star है । क्रोध आता है, प्रगट होकर वह विरेचित हो जाता है । यदि दबा रहता है तो अधिक विकृति का कारण बनता है । परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि क्रोध का प्रगटन अच्छा है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज में रहता है । इसके लिए उसे समाज के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए रखना अनिवार्य है । क्रोध की अभिव्यक्ति उन सम्बन्धों को क्षति पहुँचाती है । अभिव्यक्त और दमित क्रोध कितना भयंकर होता है, इसका विवेचन करते हुए एक आचार्य ने कहा हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003966
Book TitleKshama ke Swar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJain Shwetambar Shree Sangh Colkatta
Publication Year1984
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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