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शत्रु का हृदय भी न दुःखाए, उसकी भी भलाई करे । उसके निर्मल हृदय में प्रशम, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि भाव सदैव छलकते रहना चाहिये । ऐसी उत्कृष्ट क्षमा तभी आ सकती है, जब व्यक्ति भूतमात्र को अपने समान समझे । ऐसा व्यक्ति ही अपने शत्रु को क्षमा और प्रेम कर सकता है | क्षमा सचमुच महान् है । यह हृदय का उत्तम धर्म तथा मानवीयभावों में सर्वोपरि है । आचारांग सूत्र में कहा है
अत्थि सत्यं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं ।
अर्थात् शस्त्रएक-से-एक बढ़कर है, परन्तु अशस्त्र (क्षमा), एक-से-एक बढ़कर नहीं है अर्थात् क्षमा की साधना से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरी कोई साधना नहीं है । 1
क्षमा हार्दिक हो, यान्त्रिक नहीं :
आज मनुष्य-जीवन में भी यान्त्रिकता आ गई है । फलतः उसका व्यवहार भावना शून्य होता जा रहा है । आत्म-दर्शन का अभाव तथा प्रदर्शन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है । शिष्टाचार एक औपचारिक हो गया है । आज हम छोटे-छोटे बच्चों को भी 'सॉरी-सॉरी' कहते हुए सुन सकते हैं । यह केवल औपचारिकता है । ऐसी क्षमा आध्यात्मिक दृष्टि से फलदायक नहीं हो सकती । अतः क्षमा को हार्दिक होना चाहिये ।
वस्तुतः क्षमा हमारे हृदय या मनोभावों पर आधारित है। क्षमा न करते हुए भी व्यक्ति क्षमावान्, हो सकता है और बाह्य रूप से क्षमा करते हुए भी क्षमावान् नहीं होता । इसी तरह क्रोध न करते हुए भी मनुष्य क्रोधी हो सकता है और क्रोध करते हुए भी क्रोधी नहीं भी हो सकता है | क्षमा और क्रोध कर्ता के भावों पर अवलम्बित हैं,. बाहरी क्रिया पर नहीं ।
क्षमा के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण :
क्षमा जैन आचारदर्शन का सारभूत तत्त्व है । जैन शास्त्रों में क्षमा दशलक्षण धर्म का प्रथम धर्म शुक्लध्यान का पहला आलम्बन, आर्जव का चतुर्थ स्थान और संवर का तिरालीसवां भेद' है । भूधर२. तत्त्वार्थ सूत्र, ९.६.
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वही, ५. १.५१..
१. आचारांगसूत्र, ( १. ३. ४ ) ३. स्थानांग, ४. ३.
५. द्रष्टव्य --- आनन्दप्रवचन, भाग
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