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सब बीत रहा है, खत्म हो रहा है। सब लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। जहां तुम बैठे हो, यह मत सोचो कि वहां तुम अकेले बैठे हो । विज्ञान तो यह कहता है कि उस जमीन के टुकड़े पर इससे पहले सत्तर लोग दफनाए जा चुके हैं। सूर्योदय होता है तो सूर्यास्त भी होगा। जहां दुःख है, वहां सुख भी है। जहां संयोग है, वहीं वियोग है। जहां नित्यता है, वहीं अनित्यता है। सब कुछ परिवर्तनशील है, मगर इन्सान को इस बात का बोध नहीं होता।
जीवन का क्षणभंगुरवाद इतने आहिस्ते-आहिस्ते घटित होता है कि तुम्हें अहसास नहीं होता। तुम सोचते हो कि यह जमीन-जायदाद, परिवार और मैं, वैसा का वैसा हूँ। कहाँ बदल रहे हैं ये सब और कहाँ बदल रहा हूँ मैं? अगर ऐसा होता तो महल-महल बने रहते, कोई महल खंडहर नहीं होता, जबकि सारे महल खंडहर होते जा रहे हैं।
जिस दुकान को आज तुम अपना कहते हो कल तक तो वह किसी और की थी। तुम दुकान के प्रति आसक्तिवश कहते हो कि यह दुकान मेरी है। परिवर्तन निरन्तर हो रहा है, क्षण-क्षण परिवर्तन हो रहा है। तुम्हें इस बात का अहसास नहीं होता। दो चीजें हैं या तो परिवर्तन बड़ी तीव्रता के साथ चले या होश बड़ी प्रखरता के साथ आए।
किलारी गांव में लोग बड़ी शांति के साथ सो रहे थे और अगले ही पल भूकंप में सब तहस-नहस । अगर इतना बड़ा परिवर्तन हो और तुम्हारा होश सोया हुआ ही क्यों नहीं हो, तब भी वह जग जाएगा कि कल ऐसा था और आज ऐसा हो गया। पहली बात, संसार का जो धर्म है, उसमें परिवर्तन होता है पर बड़े आहिस्ते-आहिस्ते। जितना आहिस्ता यहां परिवर्तन होता है, हमारे होश की गति उससे भी कम है।
परिवर्तन को तो नहीं रोका जा सकता, पर होश को जरूर गहरा व जीवंत किया जा सकता है। हमारा होश व जागति जीवंत हो रही है, तो चाहे कितने ही आहिस्ता से परिवर्तन हो, हमसे बच नहीं पाएगा। हम हर क्षण जियेंगे-मरेंगे और जन्म व मृत्यु के बीच का जो क्षण है उसमें शाश्वतता बटोर लेंगे। हमारी पुरजोर कोशिश कली को खिलाकर फूल बनाने की होगी। चाहे फूल का हश्र कुछ भी हो, मगर जीवन में परम विश्राम, शांति व लीनता होगी।
जीवन की सांसें पूर्ण हो गई हैं, इसलिए फूल खिल रहा है, खिर
मानव हो महावीर / ८१
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