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या एक गुर्दा बेचकर लाखों कमा सकता है। पर अफसोस हम अपनी इस कीमती संपदा को या तो अतिपोषण देकर या अति उपेक्षा से चौपट करते चले जा रहे हैं। साधना या साधनों का उपभोग करते हुए हम अपने स्वास्थ्य पर जरा भी ध्यान नहीं देते। पर यह बात समझने की है कि अस्वस्थ शरीर से न तो साधनों का सुखप्रद उपभोग संभव है, न ही
साधना ।
अध्यात्म ने शरीर की उपेक्षा करना ही सिखाया है, पर वस्तुतः धर्म के मार्ग पर भी शरीर बाधक नहीं, साधक ही है । मैं आपको यह संदेश देना चाहता हूं कि मानव स्वयं एक मंदिर है । आत्मा, काया का आधार लेकर ही स्वयं को प्रकट करती है । यह शरीर परमात्मा के निवास का मंदिर है, इसलिए उपेक्षा की विषय-वस्तु नहीं है। मूर्ति के होने से ही मंदिर की अर्थवत्ता है, यह सत्य है पर मंदिर के होने से ही मूर्ति सुरक्षित है, यह भी तो झूठ नहीं है । इसलिए यह शरीर उपेक्षा की वस्तु नहीं है। यह अमूल्य है । इससे मैत्री करना सीखो।
स्वास्थ्य जीवन की पूंजी है । जीवन का अर्थ उसके आनंद में है, उसके सौन्दर्य में है, उसके उत्सव में है, जीवन को पूरी तरह जीने में है। त्यौहारों में वे लोग शामिल होते हैं, जिनका जीवन पर्व नहीं बन पाया है। पर्व के दौरान आदमी इसीलिए खुशहाल हो जाता है । वह भीड़ के बीच जाकर खुश होता है । उसके जीवन में तो रुग्णता है, असंतुष्टि है । जीवन स्वयं एक पर्व हो सकता है । जो लोग रुग्ण चित्त हैं, वे वास्तव में नरक जी रहे हैं । इसके विपरीत जो लोग आनंद चित्त हैं, वे स्वर्ग में जी रहे हैं । चाहे अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, वे सदा स्वाभाविक आनंद में मग्न रहते हैं ।
इस जीवन को सुन्दर और स्वस्थ बनाने के लिए आपको वाग्भट्ट का सूत्र देना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि हम मुर्दे की तरह जियें । आपका जीवन भी उत्सव हो सकता है इसलिए मैं आपको संबोधि के, अन्तर्-स्वास्थ्य के कुछ दीप थमाना चाहता हूं। इससे भीतर का अंधकार समाप्त होगा और सुन्दरता में भी वृद्धि होगी । जीवन को आनंद और उत्सव से जीना ही इसकी सार्थकता है । वाग्भट्ट ने इस सूत्र में बहुत ही कीमिया बातें कही हैं ।
नित्यम् हिताहार विहार सेवी, समीक्ष्यकारी विषयेक्त सक्तः ।
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मानव हो महावीर / २३
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