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उसके ठेठ नाभि और कुंडलिनी तक पहुंचाते हुए अत्यन्त गहरा और उसके बाद जप को छोड़ देते हैं, अजपा-जप प्रारम्भ करते हैं तीव्र अन्तरमंथन के साथ। तब दिमाग से हटकर 'ओम्' निकलता है, तब नाक से सांस नहीं चलती. सिर्फ नाभि और हृदय से ही 'ओम' का अन्तरमंथन होता है। वहाँ अजपा-जप घटित होता है। जिनके अजपा-जप घटित हो गया, बिना मस्तिष्क के 'ओम्' रहा और बिना नाक सांस रही, उन्हीं के भीतर अनाहत नाद की अनुभूति होती है। अजपा जप के बाद का चरण ही अनाहत नाद है, ऐसा नाद जहाँ बिन बजाए ताली बजती है। इनके प्रश्न का अगला भाग तेज श्वास से है। आपकी सांस की गति तेज हो सकती है। सांस की जैसी गति चलती है, मैं तो चाहता हूं उसमें कभी केदार राग निकले, कभी कोई दीपराग बजे, कभी कोई भैरवी छिड़ आए । मैं नहीं चाहता आप बैठते ही तेज हो जाएं। अगर बैठते ही सांसों को तीव्र गति दे दी तो आपका ध्यान वासना के केन्द्र को स्पन्दित कर जाएगा। इसलिए मैं पहले सांस की प्रेक्षा नियंत्रण करने को कहता हूं। सांस तो हमारे जीवन का आधार है। हमारे जीवन की पहली अभिव्यक्ति शरीर नहीं. सांस है। हम सांस को नियंत्रित करते हुए, उसे एक सुर, लय, संगीत देते हुए धीरे-धीरे विचारों के, मन के पार होते हुए अन्तस्-ध्यान में प्रवेश करते हैं। इसलिए सांस को तीव्र नहीं नियंत्रित करवाया जाता है। सांस महत्वपूर्ण नहीं है, उसे तो मात्र एक माध्यम बनाया जा रहा है, भीतर में प्रवेश करने के लिए। सांस प्रबल माध्यम है, मार्ग है अंतस्-प्रवेश
का।
तीव्र श्वास-प्रश्वास कुंडलिनी-जागरण के लिए, नाभिक ऊर्जा के जागरण के लिए, जीवन की मूलभूत ऊर्जा के जागरण के लिए बेहद सहायक है। गहरे और तीव्र श्वास वास्तव में चोट है कुंडलिनी को। सोयी सर्पिणी को जगाने के लिए अंगुली का स्पर्श है। ऐसा मात्र चैतन्य-ध्यान में करवाया जाता है। सम्बोधि ध्यान चैतन्य-ध्यान से बिल्कुल भिन्न स्थिति है। उसमें श्वास की तीव्रता नहीं होती, मात्र विपश्यना होती है। पहले श्वास की विपश्यना, फिर शरीरगत संवेदनाओं का अनुभव, सूक्ष्म ग्रन्थियों का विसर्जन, विकल्पों से मुक्ति और भीतर में साकार हुए शून्य में अन्तर-विहार | ऐसा क्रम है।
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/६१
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