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करते हैं। आज सुबह एक महिला कह रही थी जब ध्यान करते हैं तो आसपास क्या हो रहा है बहुत सुनाई देता है । तुम यहाँ अड़ोस - पड़ोस को सुनने आए हो या स्वयं को देखने-सुनने आए हो । आसपास से मतलब है या अपने आप से मतलब है? यह समूह तो इसलिए है कि समूह में सब कुछ होता रहे लेकिन फिर भी तुम अपने में जी सको और स्वयं को देख-सुन सको। जब ध्यान में कोई अनुभूति हो जाए तो ऐसे लोगों से मत कहो जो स्वयं ही अपरिपक्व स्थिति में जीते हैं। अगर कह दोगे तो लोग तुम पर हंसेंगे। तुम्हारी खिल्ली उड़ायेंगे, मजाक बनाएंगे। अपरिपक्व लोगों को अपना अनुभव सुनाओगे तो तुम्हारा अनुभव भी आधा-अधूरा हो जाएगा।
मैं देखता हूँ लोग बहुत खिल्ली उड़ाते हैं । मेरी दृष्टि में तो दूसरे की खिल्ली उड़ाने से बड़ा पाप और कोई नहीं है। किसी के साथ मजाक, मनोविनोद तो किया जा सकता है, लेकिन किसी की खिल्ली उड़ाने का अधिकार आपको नहीं है । किसी के साथ संवाद करने का अधिकार तो है, पर गाली देने का नहीं । किसी से प्रेम करने का, पुचकारने का, गाल पर हाथ फेरने का हक तो है लेकिन चाँटा मारने का हक नहीं है । प्रेम दे सकते हो तो दो, संवाद कर सकते हो तो करो, लेकिन किसी की खिल्ली तो मत उड़ाओ। सलीका रखो, अदब रखो ।
सलीके का मजाक अच्छा, करीने की हंसी अच्छी
अजी, जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी ।
हंसी मजाक कुछ भी हो लेकिन एक सभ्यता, मधुरता, ऐसी मिठास होनी चाहिए कि व्यक्ति आपकी मजाक से प्रफुल्लित हो, मजाक को शरारत न समझे । दूसरों में सुख मिल सकता है बशर्ते हमें स्वयं से अपने आप से सुख ग्रहण करने की कला आ जाए । स्वयं से सुख और आनन्द घटित करने की कला आती हो तो दूसरों से भी सुख मिलेगा। अगर स्वयं ही तनावग्रस्त हो तो जिससे भी मिलोगे हर कोई तुममें तनाव ही स्थानान्तरित करेगा ।
यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि हमारा मन परमात्मा तक को बाहर ढूंढना चाहता है । सुख को भी बाहर ही ढूंढना चाहता है । वह दसों दिशाओं में घूमता है, भटकता है लेकिन सिर्फ एक दिशा में मन की पहुंच नहीं है जो दिशा व्यक्ति स्वयं है, उसके अपने भीतर है। कबीर कहते हैं, 'मनवा तो दहुं दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहीं । तुम्हारा मन तो दसों दिशाओं में घूमता है फिर स्मरण कैसे 'स्मरण' हो गया ? दसों दिशाओं में परमात्मा को देखो, लेकिन इसका अर्थ यह
परमात्मा : चेतना की पराकाष्ठा / ६०
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