SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुद्वारा। धर्म के साथ होने वाले बंधनों के कारण ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दो धर्म हुए। धर्म-बन्धन के कारण शिया और सुन्नी, प्रोटेस्टेण्ट और कैथोलिक, हीनयान और महायान दो धर्म हुए। और मैं वह नहीं हूँ जो स्वयं को आपसे बांधकर रखू। आप अगर बंधकर रहते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन मैं खुद को आपसे बांधकर रखू, यह सम्भव नहीं है। अध्यात्म हमेशा स्वतंत्रता की बात कहता है, आत्म-स्वतंत्रता की बात करता है। मेरा काम तो सिर्फ इतना है कि भीतर शक्ति-जागरण हो जाए। लाख कोशिश करने के बाद भी अगर शक्ति-जागरण नहीं होता है तो ही मैं 'शक्तिपात' जैसी शक्तियों का प्रयोग करता हूँ अन्यथा चाहे थोड़ा-सा भी शक्ति-जागरण क्यों न हो, हमारा अपना मौलिक होना चाहिए। गुरु का कार्य सिर्फ इतना होता है कि भीतर जो गर्भ दबा हुआ है, जो बालक सोया हुआ है एक मिडवाइफ की तरह जरा-सा धक्का दे और बाहर निकाल दे । दाई स्वयं बच्चे को पैदा नहीं करती। केवल बच्चे को पैदा करवाने में मदद कर देती है। गुरु का कार्य सिर्फ यह है वह शक्ति जिससे आप अनजान हैं, अबूझ हैं वह पहेली सुलझ जाए और आपके भीतर चेतना का जो अस्तित्व है, उसे बाहर निकालकर आपको दिखा सके। उस अस्तित्व के साथ आप जीवन व्यतीत कर सकें, अपने जीवन का आनन्द प्राप्त कर सकें। आप जान सकें कि जीवन का वास्तविक स्वरूप क्या है, आनन्द क्या है, तुम अन्तरतः और कैसे स्वस्थ हो सकते हो, कैसे स्वयं का स्वर्ग ईजाद कर सकते हो। गुरु अगर जानता है कि चाँद वह रहा तो वह अंगुली से इशारा करके बता देगा कि देखो तुम्हारे सामने वह चन्द्रमा है उसे देखो। अब अगर तुम्हें चन्द्रमा दिख गया और तुम उसे भूलकर केवल अंगुली को याद रखोगे तो बंधन हो जाएगा। अटक जाओगे। मैंने तो कभी आप सभी को अपना शिष्य भी नहीं माना है। आप अपनी ओर से मुझे जो मानते हैं, यह आपकी मौज! आपका अहोभाव! मैं तो बस, मानसमित्र हूँ। एक ऐसा व्यक्ति जो आपका कल्याण चाहता है। मेरे लिए तो आप सभी प्रभु हैं, और प्रभु होने के कारण आप सभी की प्रभुता को जगाने का प्रयास किया है। प्रभुता जग जाए, बस इतना काफी है। चन्द्रमा प्रमुख है, अंगुली चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy