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________________ समुद्र के भीतर अधिक होता है । अज्ञात मन बहुत बड़ा है और ज्ञान मन बहुत - बहुत छोटा है। ध्यान-साधना के द्वारा हम अपने सोये हुए मन को, चित्त को कुरेदते हैं, उखाड़ते हैं । इतना उखाड़ते हैं कि चित्त की जमीन साफ हो जाती है । ऊपर की पर्तें किनारे हट जाती हैं । हमारे मन के, ज्ञान के, मस्तिष्क के, हृदय के तन्तु निश्चित रूप से सक्रिय किये जा सकते हैं। अपने शरीर को, शरीर के भीतर के शरीर को कैसे सक्रिय किया जा सकता है ऐसा किसी भी शरीर - विज्ञानी के पास साधन नहीं है लेकिन ध्यान-योग के द्वारा हम जब अपने अन्तर्जीवन में प्रवेश करते हैं तो इससे अंग-अंग को सक्रिय कर सकते हैं । यह बिल्कुल व्यावहारिक तथ्य है । जब हमने किसी अंगुली पर पन्द्रह मिनट तक ध्यान केन्द्रित किया और शरीर की सम्पूर्ण चेतना और ऊर्जा को वहीं केन्द्रित करना चाहा तो निश्चित ही अंगुली में भी संवेदना का अहसास होगा। प्रतीत होगा जैसे यहाँ कुछ पिण्ड एकत्रित हो चुका है। शरीर के जिस अंग पर भी ध्यान केन्द्रित करोगे वह अंग अपने-आप सक्रिय हो जाएगा । शरीर पर ध्यान केन्द्रित करोगे तो शरीर सक्रिय होगा और मन पर ध्यान केन्द्रित करोगे तो मन सक्रिय होगा । मस्तिष्क पर केन्द्रित करने से मस्तिष्क और चेतना पर केन्द्रित करने से चेतना सक्रिय होगी। हर तत्त्व, हर तन्तु सक्रिय हो सकता है । हमारे लिए पहली साधना यही होनी चाहिए कि हम जो भी कार्य करें एक-मन के साथ करें । बहु मन, बहुरुपिए होकर कोई काम न करें। अगर भोजन भी कर रहे हों, तो पेट में डालना ही खाना न हो, मन से खाना हो । मनोयोगपूर्वक कभी भोजन किया? जब मनोयोगपूर्वक भोजन करोगे तो उसमें बड़ा स्वाद आएगा । भले ही वह वस्तु तीखी, फीकी या मीठी क्यों न हो उसमें बड़ा रस आएगा । उस भोजन को करने में भी बहुत तन्मयता आएगी । सुस्वादु लगेगा वह, फिर चाहे उसमें मिर्च-मसाला भी न हो । एक काम, एक मन । जब भी कोई कार्य करो पूरे मन से करो ताकि उसका पूरा-पूरा आनन्द भी ले सको । संत विनोबा भावे के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि जब वे अपनी कुटिया में झाडू लगा रहे थे और किसी ने पूछा कि बावा क्या कर रहे हो, तो विनोबा ने कहा, माला गिन रहा हूँ। जब वे पौंछा लगा रहे थे तो फिर पूछा कि बाबा क्या कर रहे हो? उत्तर मिला ध्यान कर रहा हूँ । उसने कहा आप झाडू लगाते हो और कहते हो माला गिन रहा हूँ, पौंछा लगाते हो और कहते हो ध्यान कर रहा Jain Education International - चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ४१ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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