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मनुष्य और जगत् के बीच परिपूर्ण सम्बन्ध है । मनुष्य केवल अन्तर्मुखी नही रह सकता। वह केवल बहिर्मुखी होकर भी चैन से नहीं जी सकता । जीवन की पूर्णता किसी से टूटने में नहीं, सबसे जुड़ने में है— स्वयं से भी, जगत् से भी । मनुष्य तो देहरी का दीप है, जिसे अन्तर्जगत को भी प्रकाशित रखना है है और बहिर्जगत् को भी । भीतर - बाहर का द्वैत भी क्यों, सम्पूर्ण जगत् को ही प्रकाशित करना है ।
आखिर जगत् उसी की तो प्रतिध्वनि है।
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