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आत्मा जीवन का शब्दान्तर है। यह न तो परमात्मा के तारे का टुकड़ा है, न ही इसमें परमात्मा छिपा है। आत्मा स्वयं परमात्मा है। प्रकाश का अस्तित्व ज्योति से जुदा कहाँ होता है ! ज्योति तो स्वयं प्रकाश रूप ही है । आत्मा की पूर्णता/परमता का नाम ही परमात्मा है।
मनुष्य की आध्यात्मिक आभा ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है। आत्मा जीवन की बुनियाद है और परमात्मा आत्मा का उज्ज्वल रूप है। - प्रत्येक जीवन/आत्मा मौलिक होती है। चूंकि वह पारम्परिक नहीं होती, इसलिए मनुष्य को भी पारम्परिक नहीं, अपितु मौलिक बनना चाहिये । जीवन सत्यों की खोज करना उसके लिए प्राथमिक हो और श्रद्धा आनुषंगिक । सत्य परम्परा का पालन नहीं, वरन् जीवन में घटित होने वाली मौलिकताओं का संगीन अवलोकन है ।
तर्क एवं बौद्धिकवाद के कारण मनुष्य का दाश निक बनना कठिन नहीं है, किन्तु सत्य का दर्शन आत्म-द्रष्टा को ही सम्भव है। दार्शनिक मात्र ज्ञात तत्त्व पर ही लिखा-पढ़ी कर सकता है। जबकि आत्म-द्रष्टा अज्ञात लोक का भी साक्षात्कार कर सकता है। 0
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