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साधक का धर्म है-चारित्रगत बारीकियों के प्रति प्रतिपग/प्रतिपल जगना। प्रमाद एवं विलासिता की चपेट में आ जाना साधना-पथ में होने वाली दुर्घटना है। वह अप्रमत्त नहीं, घायल है।
साधक महापथ का पांथ है। अप्रमाद उसका न्यास है । (मौन मन ही उसके मुनित्व की प्रतिष्ठा है। स्वयं से मिलने का संकल्प ही वाणी के धरातल पर मौन का महोत्सव है । अप्रमत्तता, अनासक्ति, निष्कषायता, समदर्शिता एवं स्वावलम्बिता के अंगरक्षक साथ हों, तो साधक को कैसा खतरा। आत्मजागरण का दीप आठों याम ज्योतिर्मान रहे, तो चेतना के गहराव में कहाँ होगा अन्धकार और कहाँ होगा भटकाव ! -
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