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________________ vie MAHAR Hd पुरोवाक "माँ" पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे इस पुस्तक के लिखने की अनुभूति से अनुस्यूत प्रेरणा कहां से मिली ! ये चिन्तन के धागे जब मैंने एक सूत्र रूप में संगृहीत करने आरम्भ किये तो मेरे मानस-पटल पर एक मूर्ति पुनः पुनः उभर कर मुझे संकेत देने लगी कि जननी ही जगत् का आधार है । इसलिए मेरे अन्तर्जगत् में लगा कि स्व जननी की दया, ममता, वात्सल्यमयी मूर्ति मुझे बार-बार इस कृति को लिखने के लिए सम्प्रेरित करती रही है। जननीमात्र विश्व की महत् शक्ति है। प्रकृति का स्वरूप इसी का अपर नाम है। धरित्री इसी का सारभित पर्याय है, इसलिए इस पुस्तक की प्रेरणा स्व जननी और जगत जननी के एकाकार से सम्प्राप्त हुई, जो शब्दों के कण-कण में बईतीहि के समान इस शब्दाकार में साकार हो गई है। यह साकारता अन्तःकरण के भावों की अपनी रूपमयता है। जिसमें मानवीय हृदय के अमृत-कण युग-धर्म के अनुकूल संचित हैं । अनेक प्रवचनों में वर्तमान जीवन के शोषित और दमन-चक्र से प्रताड़ित तथा प्रतारित मात्र जीवन के प्रति समाज की सुषुप्त चेतना को जागृत करने का सुसम्बद्ध उपक्रम इस रचना में भी सहज-भाव से मूर्तिमान हो गया है। कहा गया है कि विश्व का सौन्दर्य यदि कहीं देखने को मिलता है और वात्सल्य का अपार सागर यदि लहराता हुआ देखना हो तो उसे माँ की ममतामयी आकृति में देखा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान-यंत्रों से संकूलित समाज और विच्छिन्न परिवार में प्रेम-पावन धरातल को सुदृढ़ करने के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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