SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१ सूत कातती माँ घोड़े चढ़ते पिता की अपेक्षा सहस्र गुनी अच्छी और उत्तम होती है । "माँ पिसारी, बाप लखेश्वरी तो पण माँ चोखी ।” इस लोकोक्ति के अनुसार निर्धनावस्था में माँ तो गेहूं-श्रनाज पीसकर, किसी के बर्तन धोकर, सूत कातकर भी अपने पुत्र का पालनपोषण कर लेती है और पिता मिल मालिक होते हुए भी उसे बड़ा बनाने एवं उसमें मनुष्यत्व की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं कर सकता है । माँ रहित जीवन टूटे हुए घट के टुकड़ों के समान है जो प्रत्येक के पैर नीचे कुचला जाता रहता है । इसीलिए 'युगद्रष्टा प्रेमचन्द' पुस्तक में परमेश्वर द्विरेफ ने माँ के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है माता का वात्सल्य धन्य है, धन्य-धन्य उसकी उदारता । सब कुछ हों पर माँ न रहे तो जीवन मैं सारी असारता ॥ माँ का हृदय न जाने कौन से प्रत्युत्कट प्रणुत्रों से निर्मित होता है । उसका हर चिन्तन, प्रत्येक कदम प्रतिपल संतान हेतु अनूठा वात्सल्य लेकर चलता है । एक शिकारी हरिणी को घेरकर धनुष से बाण संधान करने वाला था । एकलव्य भील की भांति नहीं जिसने एक क्षण में कुत्त का मुख बाणों से भर दिया । अचानक श्राकाशवाणी हुई— - रहने दे ! रहने दे ! यह संहार युवान तूं । घटे न क्रूरता ऐसी, विश्व सौन्दर्य है कुमलू ं ॥ रहने दे ! रहने दे ! सेठ सुदर्शन अपने शील पर अटल रहे तो राजा हरिश्चन्द्र सत्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy