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लिया करो या अपने अमोल-रत्न को कह दो कि वह दूसरी ले आए। कौरव-पांडव मध्य ऐसे संवादों की शुरूआत होते ही भारी महायुद्ध जारी । समीपवर्ती पड़ोसी महिलाएँ यदि बचाव कार्य का त्याग कर दें तो मुझे सास-बहूं दोनों को "अमरजेन्सी सर्जीकल वार्ड" में भरती करना पड़े। और मुझे एक माह तक उपवास ही करना पड़ेगा, कारण स्पष्ट है कि महीने का वेतन तो सहजता से अस्पताल में समाप्त हो जायेगा।
वर्तमान समय में तो दो बार विचित्र प्रकार का दश्य दष्टि में आया है कि सास-बहू में कई दिनों से संवाद की तिथियां समाप्त हो जाती हैं। ऐसे शुभ दिनों में मेरे प्रयत्न उनमें से किसी एक को उकसाने के होते हैं और परिणाम स्वरूप घर पुनः रणक्षेत्र में परिणत हो जाता है । मैं इन दोनों में विलय होता देखना चाहता हूं। इसी प्रतीक्षा में बैठा-बैठा क्रांतिकारी कार्य कर रहा हूं।
मेरा विश्वास महाकवि प्रसाद के महाकाव्य कामायनी के जलप्लावन में है कि किसी दिन सास-बहू में सिर फुटौवल होगी और रक्त क्रांति के द्वारा समाजवादी शांति का उदय सूर्य की भांति होगा। मैं उस दिन की प्रतीक्षा में अकबर अहमद की तरह हूं। वह शुभ दिन जाने कब आएगा ? ......एक व्यक्ति मेरे पास आया। उपर्युक्त बात उसने बड़े ही हाव-भाव के साथ कही।
वाह ! वाह ! मैंने अंगूर मीठे सोचे थे लेकिन ये अंगूर तो खट्टे हैं। मैंने उसे समझाते हुए कहा, भैया ! आज देश को दुश्मनों से नहीं बल्कि गद्दारों से अधिक खतरा है। खजाना है, लेकिन उसे चोरों से नहीं पर पहरेदारों से ही खतरा है। माँ की सुरक्षा के लिए सावधानी की जरूरत है, उन्हें दूसरों से नहीं किन्तु बेटे-बहू से ही खतरा है। ___ यद्यपि उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द ने तो कहा है कि "माँ के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो।" पर यहां पर तो कुछ और ही दृश्य नजर आ रहा
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