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तथा उसका वात्सल्य जगत का अमूल्य और अद्वितीय ऐसा विशाल परम सुखानन्द है। उसके वात्सल्य का स्वाद, पान के रस के सदृश स्पष्ट झलकता, चित्त में प्रविष्टि करता, सर्वांग को सुधारस से सिंचित करता, परमानन्द के समान अनुभूत होता और अलौकिक चमत्कृति से युक्त रहता है । सन्तान अथवा सन्तान तुल्य व्यक्तियों के प्रति उसका प्रेम-वात्सल्य गजब का ही होता है, साथ ही साथ उसमें अनोखापन तथा गजव का अद्भुत जादू भी होता है। तभी तो.....। चिराग से जलते माँ के जीवन पर,
दुनियाँ दीवानी बने । हिमगिरि सा प्रोन्नत यह मन,
... सदियों की कहानी बने । इस प्रकार से कहते हैं।
मनुष्य के समीप में समीप, सम्पूर्ण समीपवर्ती यदि कोई है तो केवल माँ ही है । They are my nearest and dearest मां ही अत्यन्त निकटवर्ती व अति प्रिय है। जिस प्रकार उद्यान में खिले हुए पुष्पों की सुगन्ध छिपाए नहीं छिपती उसी प्रकार पृथ्वी पर माँ का प्रेम छिपाए नहीं छिप सकता । प्राचार्य रजनीश की पुस्तक अमृतकण में मैंने पढ़ा कि 'प्रेम आत्मा की सुवास है।'
माँ का प्रेम ! मेरो आन्तरिक माँ एक है पर बाह्य अनेक भिन्नभिन्न भाँति की हैं। दृष्टि डालिए। मूल्य भी है उनका, प्रदर्शित करूँगा ! क्यों......? क्यों क्या ? भला फालतू नहीं है कार्य भी दिखा दूंगा। मेरी माँ। अरे भाई ! मेरी माया निराली है। आपकी माँ केवल आपकी ही नहीं मेरी भी है। उसकी माँ भी मेरी माँ है। यह भी मेरी वह भी मेरी; इधर वाली भी और उधर वाली भी। यत्र तत्र सर्वत्र....'नारी मात्र मेरी माँ है लेकिन निलिप्त भाव से। यह माँ मेरे पिया के सच्चिदानन्द स्वरूप के पास मुझे ले जाती है । वह सिर
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